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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


ज्ञानी– चिंता का नींद से बिगाड़ है।

सबल– किस बात की चिंता है...?

ज्ञानी– एक बात है कि कहूँ। चारों तरफ चिंताएं ही चिंताएं हैं। इस वक्त तुम्हारी यात्रा की चिंता है। तबीयत अच्छी नहीं, अकेले जाने को कहते हो। परदेश वाली बात है, न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े इससे तो यही अच्छा था कि यहीं इलाज करवाते।

सबल– (मन-ही-मन) क्यों न इसे खुश कर दूँ जब जरा-सा बात फेर देने से काम निकल सकता है। (प्रकट) इस जरा-सी बात के लिए इतनी चिंता करने की क्या जरूरत?

ज्ञानी– तुम्हारे लिए जरा-सी हो, पर मुझे तो असूझ मालूम होता है।

सबल– अच्छा तो लो, न जाऊंगा।

ज्ञानी– मेरी कसम?

सबल– सत्य कहता हूँ। जब इसमें तुम्हें इतना कष्ट हो रहा है तो न जाऊंगा।

ज्ञानी– मैं इस अनुग्रह को कभी न भूलूंगी। आपने मुझे उबार लिया, नहीं तो न जाने मेरी क्या दशा होती। अब मुझे कुछ दंड भी दीजिए। मैंने आपकी आज्ञा का उल्लघंन किया है और उसका कठिन दंड चाहती हूं।

सबल– मुझे तुमसे इसकी शंका ही नहीं हो सकती।

ज्ञानी– पर यह अपराध इतना बड़ा है कि आप उसे क्षमा नहीं कर सकते।

सबल– (कुतूहल से) क्या बात है सुनूँ?

ज्ञानी– मैं कल आपके मना करने पर भी स्वामी चेतनदास के दर्शनों को चली गयी थी।

सबल– अकेले?

ज्ञानी– गुलाबी साथ थी।

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