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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


अचल– कुत्ता कोई चीज चुरा ले जाता है तो क्या जानता नहीं कि मैं बुरा कर रहा हूं। चुपके-चुपके, पैर दबाकर, इधर-उधर चौकन्नी आंखों से ताकता हुआ जाता है, और किसी आदमी की आहट पाते ही भाग खड़ा होता है। कौवे का भी यही हाल है। इससे तो मालूम होता है कि पशु-पक्षियों को भी भले-बुरे का ज्ञान होता है। कौवे का भी यही हाल है। इससे तो मालूम होता है कि पशु-पक्षियों को भी भले-बुरे का ज्ञान होता है; तो फिर उनको दंड क्यों न दिया जाये?

सबल– अगर ऐसा ही हो तो हमें उनको दंड देने का क्या अधिकार है? हालांकि इस विषय में कुछ नहीं कह सकते कि शिकारी चिड़ियों में वह ज्ञान होता है जो कुत्ते या कौवे में है, या नहीं।

अचल– अगर हमें पशु-पक्षी चोरों को दंड का अधिकार नहीं है तो मनुष्य में चोरों को क्यों ताड़ना दी जाती हैं? वह जैसा करेंगे उसके फल आप पायेंगे, हम क्यों उन्हें दंड दें।

सबल– (मन में) लड़का है तो नन्हा-सा बालक मगर तर्क खूब करता है। (प्रकट) बेटा! इस विषय में हमारे प्राचीन ऋषियों ने बड़ी मार्मिक व्यवस्थाएं की है, अभी तुम न समझ सकोगे। जाओ सैर कर आओ, ओवरकोट पहन लेना, नहीं तो सरदी लग जायेगी।

अचल– मुझे वहां कब ले चलियेगा जहां आप कल भोजन करने गये थे? मैं भी राजेश्वरी के हाथ का बनाया खाना खाना चाहता हूं। आप चुपके से चले गये, मुझे बुलाया तक नहीं। मेरा तो जी चाहता है कि नित्य गांव ही में रहता, खेतो में घूमा करता।

सबल– अच्छा, अब जब वहां जाऊंगा तो तुम्हें भी साथ ले लूंगा।

(अचलसिंह चला जाता है।)

सबल– (आप-ही-आप) लेख का दूसरा पाइंट (मुद्दा) क्या होगा? अदालतें सबलों के अन्याय की पोषक हैं। जहां रुपयों के द्वारा फरियाद की जाती हो, जहां वकीलों बारिस्टरों के मुंह से बात की जाती हो, वहां गरीबों की कहां पैठ? यह अदालत नहीं, न्याय की बलिवेदी है। जिस किसी राज्य की अदालतों का यह हाल हो...जब वह थाली परसकर मेरे सामने लायी तो मुझे ऐसा मालूम होता था कि जैसे कोई मेरे हृदय को खींच रहा हो। अगर उससे मेरा स्पर्श हो जाता तो शायद मैं मूर्छित हो जाता। किसी उर्दू कवि के शब्दों में ‘यौवन फटा पड़ता था।’ कितना कोमल गात है, न जाने खेतों में कैसे इतनी मेहनत करती है। नहीं, यह बात नहीं। खेतों में काम करने ही से उसका चम्पई रंग निखर कर कुंदन हो गया है। वायु और प्रकाश ने उसके सौंदर्य को चमका दिया है। सच कहा है हुस्न के लिए गहनों की आवश्यकता नहीं। उसके शरीर पर कोई आभूषण न था, किन्तु सादगी आभूषणों से कहीं ज्यादा मनोहारिणी थी। गहने सौदर्य की शोभा क्या बढ़ायेंगे, स्वयं अपनी शोभा बढ़ाते हैं। उस व्यंजन में कितना स्वाद था? रूप, लावण्य ने भोजन को भी स्वादिष्ट बना दिया था। मन फिर उधर गया, यह मुझे हो क्या गया है। यह मेरी युवावस्था नहीं है कि किसी सुन्दरी को देखकर लट्टू हो जाऊं, अपना प्रेम हथेली पर लिये प्रत्येक सुन्दरी स्त्री की भेंट करता फिरूं। मेरी प्रौढ़ावस्था है, पैंतालीसवे वर्ष में हूं। एक लड़के का बाप हूं जो छः सात वर्षो में जवान होगा। ईश्वर ने दिये होते तो चार पांच संतानों का पिता हो सकता था। यह लोलुपता है, छिछोरापन है। इस अवस्था में, इतना विचारशील होकर भी मैं इतना मलिन-हृदय हो रहा हूं। किशोरवस्था में तो मैं आत्मशुद्धि पर जान देता था, फूंक-फूंक कर कदम रखता था, आदर्श जीवन व्यतीत करता था और इस अवस्था में जब मुझे आत्मचिन्तन में मग्न होना चाहिए, मेरे सिर पर यह भूत सवार हुआ है। क्या यह मुझसे उस समय का बदला लिया जा रहा है, अब मेरी परीक्षा की जा रही है।

(ज्ञानी का प्रवेश)

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