लोगों की राय

कहानी संग्रह >> सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

430 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध कहानियाँ


गोमती में एक विचित्रता यह थी कि वह कड़ी से कड़ी बातें सहन कर सकती थी, पर भूख सहन करना उसके लिए बड़ा कठिन था। इसीलिए कोई व्रत भी न रखती थी। हाँ कहने-सुनने को जन्माष्टमी रख लेती थी। पर आजकल बीमारी के कारण उसे और भी भूख लगती थी। जब उसने देखा कि दोपहर होने को आयी और भोजन मिलने के कोई लक्षण नहीं, तब विवश होकर बाजार से मिठाई मँगायी। सम्भव है, उसने गोदावरी को जलाने के लिए ही यह खेल खेला हो, क्योंकि कोई भी एक वक्त खाना न खाने से मर नहीं जाता। गोदावरी के सिर से पैर तक आग लग गई। उसने भी तुरन्त मिठाइयाँ मँगवायीं। कई वर्ष के बाद आज उसने पेट भर मिठाइयाँ खायीं। ये सब ईर्ष्या के कौतुक हैं।

जो गोदावरी दोपहर के पहले मुँह में पानी नहीं डालती थी, वह अब प्रात:काल ही कुछ जलपान किए बिना नहीं रह सकती। सिर में वह हमेशा मीठा तेल डालती थी, पर अब मीठे तेल से उसके सिर में पीड़ा होने लगती थी। पान खाने का उसे नया व्यसन लग गया। ईर्ष्या ने उसे नई नवेली बहू बना दिया।

जन्माष्टमी का शुभ दिन आया। पण्डितजी का स्वाभाविक आलस्य इन दो-तीन दिन के लिए गायब हो जाता था। वे बड़े उत्साह से झाँकी बनाने में लग जाते थे। गोदावरी यह व्रत बिना जल के रखती थी और पण्डितजी तो कृष्ण के उपासक ही थे। अब उनके अनुरोध से गोमती ने भी निर्जल व्रत रखने का साहस किया, पर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब महरी ने आकर उससे कहा– बड़ी बहू निर्जल न रहेंगी, उनके लिए फलाहार मँगा दो।

सन्ध्या समय गोदावरी ने मान-मन्दिर जाने के लिए इक्के की फरमाइश की। गोमती को यह फरमाइश बुरी मालूम हुई। आज के दिन इक्कों का किराया बहुत बढ़ जाता था। मान-मन्दिर कुछ दूर भी नहीं था। इससे वह चिढ़कर बोली– व्यर्थ रुपया क्यों फेंका जाए? मन्दिर कौन बड़ी दूर है। पाँव-पाँव क्यों नहीं चली जातीं?

हुक्म चला देना तो सहज है। अखरता उसे है, जो बैल की तरह कमाता है।

तीन साल पहले गोमती ने इसी तरह की बातें गोदावरी के मुँह से सुनी थीं। आज गोदावरी को भी गोमती के मुँह से वैसी ही बातें सुननी पड़ीं। समय की गति!

इन दिनों गोदावरी बड़े उदासीन भाव से खाना बनाती थी। पण्डितजी के पथ्यापथ्य के विषय में भी अब उसे पहले की-सी चिन्ता न थी। एक दिन उसने महरी से कहा कि अन्दाज से मसाले निकाल पीस ले। मसाले दाल में पड़े तो मिर्च जरा अधिक तेज हो गई। मारे भय के पण्डितजी से वह न खाई गई। अन्य आलसी मनुष्यों की तरह चटपटी वस्तुएँ उन्हें भी बहुत प्रिय थीं, परन्तु वे रोग से हारे हुए थे। गोमती ने जब यह सुना तो भौंह चढ़ाकर बोली– क्या बुढ़ापे में जबान गज भर की हो गई है?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai