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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624

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कुआर का महीना था। रात को गंगा की लहरों की गरज बड़ी भयानक मालूम होती थी। साथ ही बिजली तड़प जाती, तब उसकी उछलती हुई लहरें प्रकाश से उज्जवल हो जाती थीं। मानो प्रकाश उन्मत्त हाथी का रूप धारण कर किलोलें मार रहा हो। जीवन-संग्राम का एक विशाल दृश्य आँखों के सामने आ रहा था।

गोदावरी के हृदय में भी इस समय अनेक लहरें बड़े वेग से उठतीं, आपस में टकरातीं और ऐंठती हुई लोप हो जाती थीं। कहाँ? अन्धकार में।

क्या यह गरजने वाली गंगा गोदावरी को शांति प्रदान कर सकती है? उसकी लहरों में सुधासम मधुर ध्वनि नहीं है और न उसमें करुणा का विकास ही है। वह इस समय उद्दंडता और निर्दयता की भीषण मूर्ति धारण किए है।

गोदावरी किनारे बैठी क्या सोच रही थी, कौन कह सकता है? क्या अब उसे यह खटका नहीं लगा था कि पण्डित देवदत्त आते न होंगे! प्रेम का बन्धन कितना मजबूत है।

उसी अंधकार में ईर्ष्या, निष्ठुरता और नैराश्य की सतायी हुई वह अबला गंगा की गोद में गिर पड़ी! लहरें झपटीं और उसे निगल गईं!!!

सबेरा हुआ। गोदावरी घर में नहीं थी। उसकी चारपाई पर यह पत्र पड़ा हुआ था:

‘‘स्वामिन, संसार में सिवाय आपके मेरा और कौन स्नेही था? मैंने अपना सर्वस्व अपने सुख की भेंट कर दिया। अब आपका सुख इसी में है कि मैं इस संसार में लोप हो जाऊँ। इसीलिए ये प्राण आपकी भेंट हैं। मुझसे जो कुछ अपराध हुए हों, क्षमा कीजिएगा। ईश्वर सदा आपको सुखी रक्खे।’’

पण्डितजी इस पत्र को देखते ही मूर्च्छित होकर गिर पड़े। गोमती रोने लगी। पर क्या वे उसके विलाप के आँसू थे?

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