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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624

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बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके सामने बुढ़िया ने दु:ख के आँसू न बहाये हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ-हाँ करके टाल दिया, और किसी ने इस अन्याय पर जमाने को गालियाँ दीं। कहा– कब्र में पाँव लटके हुए हैं, आज मरे, कल दूसरा दिन हो, पर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिए? रोटी खाओ, अल्लाह का नाम लो। तुम्हें खेती-बारी से अब क्या काम? कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें हास्य- के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमर, पोपला मुँह, सन के से बाल– जब इतनी सामग्रियाँ एकत्र हों, तब हँसी क्यों न आवे? ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने उस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सान्त्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घाम कर बेचारी अलगू चौधरी के पास आयी। लाठी पटक दी और दम लेकर बोली– बेटा, तुम भी क्षण भर के लिये मेरी पंचायत में चले आना।

अलगू– मुझे बुलाकर क्या करोगी? कई गाँव के आदमी तो आवेंगे ही!

खाला– अपनी विपद तो सबके आगे रो आयी हूँ, आने न आने का अख्तियार उनको है।

अलगू– यों आने को आ जाऊँगा, मगर पंचायत में मुँह न खोलूँगा।

खाला– क्यों बेटा?

अलगू– अब इसका क्या जवाब दूँ? अपनी खुशी! जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता।

खाला– बेटा, क्या बिगाड़ के भय से ईमान की बात न कहोगे?

हमारे सोये हुए धर्म-ज्ञान की सारी सम्पत्ति लुट जाए, तो उसे खबर नहीं होती, परन्तु ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का कोई जवाब न दे सके, पर उनके हृदय में ये शब्द गूँज रहे थेः

‘‘क्या बिगाड़ के भय से ईमान की बात न कहोगे?’’

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