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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध कहानियाँ


थोड़ी देर बाद वे ग्राम में पहुँचे। शर्माजी के स्वर्गवासी पिता एक रसिक पुरुष थे। एक छोटा-सा बाग, छोटा-सा पक्का कुँआ, बँगला, शिवजी का मन्दिर यह सब उन्हीं के कीर्त्ति-चिन्ह थे। वह गर्मी के दिनों में यही रहा करते थे। पर शर्माजी के यहाँ आने का यह पहला ही अवसर था। बेगारियों ने चारों तरफ सफाई कर रक्खी थी। शर्माजी बहली से उतरकर सीधे बँगले में चले गये। सैकड़ों असामी दर्शन करने आये थे, पर वह उनसे कुछ न बोले।

घड़ी रात जाते-जाते शर्माजी के नौकर टमटम लिये आ पहुँचे। कहार, साईस और रसोइया महाराज तीनों ने असामियों को इस दृष्टि से देखा, मानो वह उनके नौकर हैं। साईस ने एक मोटे-ताजे किसान से कहा– घोड़े को खोल दो।

किसान बेचारा डरता-डरता घोड़े के निकट गया। घोड़े ने अनजान आदमी को देखते ही तेवर बदलकर कनौतियाँ खड़ी कीं। किसान डरकर लौट आया, तब साइस ने उसे ढकेलकर कहा– बस, निरे बछिया के ताऊ ही हो। हल जोतने से क्या अक्ल भी चली जाती है? यह लो, घोड़े को टहलाओ। मुँह क्या बनाते हो, कोई सिंह है कि खा जाएगा?

किसान ने भय से काँपते हुए रास पकड़ी, उसका घबराया हुआ मुख देखकर हँसी आती थी। पग-पग पर घोड़े को चौकन्नी दृष्टि से देखता मानो वह कोई पुलिस का सिपाही है।

रसोई बनानेवाले महाराज एक चारपाई पर लेटे हुए थे। कड़क कर बोले– अरे नउआ कहाँ है? चल पानी-वानी ला हाथ-पैर धो दे।

कहार ने कहा– अरे किसी के पास जरा सुरती-चूना हो तो देना। बहुत देर से तमाखू नहीं खायी।

मुख्तार (कारिन्दा) साहब ने इन मेहमानों की दावत का प्रबन्ध किया। साईस और कहार के लिए पूरियाँ बनने लगीं, महाराज को सामान दिया गया। मुख्तार साहब इशारे पर दौड़ते थे और दीन किसानों का तो पूछना ही क्या, वे तो बिना दामों के गुलाम थे। सच्चे स्वतन्त्र लोग इस समय सेवक बने हुए थे।

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