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सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ

ईश्वरीय न्याय

कानपुर जिले में पंडित भृगुदत्त नामक एक बड़े जमींदार थे। मुंशी सत्य– नारायण उनके कारिंदा थे। वह बड़े स्वामिभक्त और सच्चरित्र मनुष्य थे। लाखों रुपये की तहसील और हजारों मन अनाज का लेन– देन उनके हाथ में था, पर कभी उनकी नीयत डावाँडोल न होती। उनके सुप्रबंध से रियासत दिनों– दिन उन्नति करती जाती थी। ऐसे कर्मपरायण सेवक का जितना सम्मान होना चाहिए उससे कुछ अधिक ही होता था। दुःख– सुख प्रत्येक अवसर पर पंडित जी उनके साथ उदारता से पेश आते। धीरे– धीरे मुंशीजी का विश्वास इतना बढ़ा कि पंडित जी ने हिसाब– किताब का समझना भी छोड़ दिया। सम्भव है, उनमें आजीवन इसी तरह निभ जाती पर भावी प्रबल है। प्रयाग में कुम्भ लगा तो पंडित जी स्नान करने गये, वहाँ से लौटकर फिर वे घर न आये। मालूम नहीं, किसी गढ़े में फिसल पड़े या कोई जल– जंतु उन्हें खींच ले गया फिर उनका कोई पता नहीं चला। अब मुंशी सत्यनारायण के अधिकार और भी बढ़े। एक हतभागिनी विधवा और दो छोटे– छोटे बालकों के सिवा पंडितजी के घर में और कोई न था। अंत्येष्टि क्रिया से निवृत्त होकर एक दिन शोकातुर पंडिताइन ने उन्हें बुलाया और रोकर कहा– लाला! पंडित जी तो हमें मँझधार में छोड़कर सुरपुर को सिधार गये, अब यह नैया तुम्हीं पार लगाओ, तो लग सकती है। यह सब खेती तुम्हारी ही लगाई हुई है। इसे तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। ये तुम्हारे बच्चे हैं इन्हें अपनाओ। जब तक मालिक जिए तुम्हें अपना भाई समझते रहे। मुझे विश्वास है कि तुम उसी तरह भार को सँभाले रहोगे।

सत्यनारायण ने रोते हुए जवाब दिया– भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरे भाग्य फूट गए, नहीं तो मुझे आदमी बना देते। मैं उन्हीं का नमक खाकर जिया हूँ और उन्हीं की चाकरी में मरूंगा, आप धीरज रखें। किसी प्रकार की चिन्ता न करें। मैं जीते– जी आपकी सेवा से मुँह न मोड़ूँगा। आप केवल इतना कीजिएगा कि जिस किसी की शिकायत करूँ उसे डाँट दीजिएगा, नहीं तो ये लोग सिर चढ़ जायेंगे।

इस घटना के बाद कई वर्षों तक मुंशी जी ने रियासत को सँभाला। वह अपने काम में बडे़ कुशल थे। कभी एक कौड़ी का बल नहीं पड़ा। सारे जिले में उनका सम्मान होने लगा। लोग पंडितजी को भूल– सा गए। दरबारों और कमेटियों में वे सम्मिलित होते, जिले के अधिकारी उन्हीं को जमींदार समझते। अन्य रईसों में भी उनका बड़ा आदर था मान– वृद्धि मँहगी वस्तु है और भानुकुंवरि, अन्य स्त्रियों के सदृश, पैसे को खूब पकड़ती थी। वह मनुष्य की मनोवृत्तियों से परिचित न थी। पंडितजी हमेशा लालाजी को इनाम– इकराम देते रहते थे। वे जानते थे कि ज्ञान के बाद इनाम का दूसरा स्तम्भ अपनी सुदशा है। इसके सिवाय वे खुद कभी– कभी कागजों की जाँच कर लिया करते थे। नाम मात्र ही को सही, पर इस निगरानी का डर जरूर बना रहता था; क्योंकि ईमान का सबसे बड़ा शत्रु अवसर है। भानुकुँवरि इन बातों को जानती न थी। अतएव अवसर तथा धनाभाव जैसे प्रबल शत्रुओं के पंजें में पड़कर मुंशीजी का ईमान कैसे बेदाग बचता?

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