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सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


रात के दस बज गये थे। मुंशी सत्यनारायण कुंजियों का एक गुच्छा कमर में दबाएं घर से बाहर निकले। द्वार पर थोड़ा सा पुआल रखा हुआ था। उसे देखते ही वे चौंक पड़े। मारे डर के छाती धड़कने लगी। जान पड़ा कि कोई छिपा बैठा है। कदम रुक गए। पुआल की तरफ ध्यान से देखा। उसमें बिलकुल हरकत न हुई। तब हिम्मत, बँधी। बढ़े और मन को समझाने लगे – मैं कैसा बौखल हूं। अपने द्वार पर किसका डर? और सड़क पर भी मुझे किसका डर है? मैं तो अपनी राह जाता हूँ। कोई मेरी तरफ तिरछी आँखों से नहीं देख सकता है। हाँ, जब मुझे सेंध लगाते देख ले– वहीं पकड़ ले– तब अलबत्ते डरने की बात है! तिस पर भी बचाव की युक्ति निकल सकती है।

अकस्मात् उन्होंने भानुकुंवरि के एक चपरासी को आते देखा। कलेजा धड़क उठा। लपककर एक अँधेरी गली में घुँस गये। बड़ी देर तक वहां खड़े रहे। जब वह सिपाही आँखों से ओझल हो गया, तब फिर सड़क पर आये। वह सिपाही आज सुबह तक इनका गुलाम था, उसे उन्होंने कितनी बार गालियाँ दी थीं, लातें भी मारी थीं। पर अभी उसे देखकर उनके प्राण सूख गए।

उन्होंने सिर्फ तर्क की शरण ली। मैं मानो भंग खाकर आया हूँ। इस चपरासी से इतना डरा। माना कि मुझे देख लेता, पर मेरा क्या कर सकता था? हजारों आदमी रास्ता चल रहे हैं। उन्हीं में एक मैं भी हूँ। क्या वह अंतर्यामी है? सबके हृदय का हाल जानता है? मुझे देखकर वह अदब से सलाम करता और वहां का कुछ हाल भी कहता, पर मैं उससे ऐसा डरा कि सूरत तक भी न दिखायी। इस तरह मन को समझा कर वे आगे बढ़े। सच है, पाप के पंजों में फँसा हुआ मन पतझड़ का पत्ता है, जो हवा के जरा से झोंके से गिर पड़ता है।

मुंशीजी बाजार पहुंचे। अधिकतर दूकानें बंद हो चुकी थीं। उनमें साँड़ और गायें बैठी हुई जुगाली कर रही थीं। केवल हलवाइयों की दुकाने खुली हुई थीं और कहीं– कहीं गजरेवाले हार की हाँक लगाते फिरते थे। सब हलवाई मुंशीजी को पहचानते थे। अतएव मुंशीजी ने सिर झुका लिया। कुछ चाल बदली और लपकते हुए चले। यकायक उन्हें एक बग्घी आती हुई दिखाई दी। यह सेठ बल्लभदास वकील की बग्घी थी। इसमें बैठकर हजारों बार सेठजी के साथ कचहरी गये थे; पर आज यह बग्घी काल देव के समान भयंकर मालूम हुई। फौरन एक खाली दुकान पर चढ़ गये। वहाँ विश्राम करने वाले साँड़ ने समझा ये मुझे पदच्युत करने आये हैं। माथा झुकाए, फुंकारता हुआ उठ बैठा। पर इसी बीच में बग्घी निकल गयी और मुंशी जी के जान आयी। अबकी उन्होंने तर्क का आश्रय न लिया। समझ गये कि इस समय इससे कोई लाभ नहीं। खैरियत यह हुई कि वकील ने देखा नहीं। वह एक घाघ है। मेरे चेहरे से ताड़ जाता।

कुछ विद्वान का कथन है कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति पाप की ओर होती है, पर वह कोरा अनुमान– ही– अनुमान है; बात अनुभव सिद्ध नहीं। सच बात यह है कि मनुष्य स्वाभवतः पाप– भीरु होता है और हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि पाप से उसे कैसी घृणा होती है।

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