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सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


ज्ञानप्रकाश– क्या मेरी सूरत से भी घृणा हो गई?

देवप्रिया– जब तू हमारे कहने ही में नहीं, तो जहाँ चाहे, रह। हम भी समझ लेंगे, भगवान् ने लड़का ही नहीं दिया।

देवप्रकाश– क्यों व्यर्थ ऐसे कटु वचन बोलती हो?

ज्ञानप्रकाश– अगर आप लोगों की यही इच्छा है, तो यही होगा?

देवप्रकाश ने देखा कि बात का बतंगड़ हुआ चाहता है, तो ज्ञानप्रकाश को इशारे से टाल दिया, पत्नी के क्रोध को शांत करने की चेष्टा करने लगे। मगर देवप्रिया फूट– फूटकर रो रही थी, बार– बार कहती थी– मैं इसकी सूरत न देखूँगी।

अन्त में देवप्रकाश ने चिढ़कर कहा– तो तुम्हीं ने कटु वचन कहकर उसे उत्तेजित कर दिया।

देवप्रिया– यह सब विष उसी चांडाल ने बोया है, जो यहाँ से सात समुद्र पार बैठा हुआ मुझे मिट्टी में मिलाने का उपाय कर रहा है। मेरे बेटे को मुझसे छीनने के लिए उसने यह प्रेम का स्वाँग भरा है। मैं उसकी नस– नस पहचानती हूँ। उसका यह मंत्र जान लेकर छोड़ेगा, नहीं तो मेरा ज्ञानू, जिसने कभी मेरी बात का जबाव नहीं दिया, यों मुझे न जलाता।

देवप्रकाश– अरे, तो क्या वह विवाह ही न करेगा! अभी गुस्से में अनाप– शनाप बक गया है। जरा शांत हो जायगा, तो मैं समझाकर राजी कर दूँगा।

देवप्रिया– मेरे हाथ से निकल गया।

देवप्रिया की आशंका सत्य निकली। देवप्रकाश ने बेटे को बहुत समझाया।

कहा– तुम्हारी माता इस शोक में मर जायगी, किन्तु कुछ असर न हुआ। उसने एक बार ‘नहीं’ कहकर ‘हाँ’ नहीं की। निदान पिता भी निराश होकर बैठ रहे।

तीन साल तक प्रतिवर्ष विवाह के दिनों में यह प्रश्न उठता रहा, पर ज्ञान प्रकाश अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहा। माता का रोना धोना निष्फल हुआ। हाँ, उसने माता की एक बात मान ली। वह भाई से मिलने कलकत्ते न गया।

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