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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…


रात का वक़्त था। शाही दरबार लगा हुआ था बड़े-बड़े वज़ीर अपने पद के अनुसार बैठे हुए थे और नौकर ज़र्क-बर्क़ वर्दियाँ पहने हाथ बाँधे खड़े थे कि एक ख़िदमतगार ने आकर अर्ज की—दोनों जहान की मलिका, एक ग़रीब औरत बाहर खड़ी है और आपके क़दमों का बोसा लेने की ग़ुज़ारिश करती है। दरबारी चौंके और मलिका ने ताज्जुबभरे लहजे में कहा—अन्दर हाजिर करो। ख़िदमतगार बाहर चला गया और ज़रा देर में एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आयी और अपनी पिटारी से एक जड़ाऊ ताज निकाल कर बोली—तुम लोग इसे ले लो, अब यह मेरे किसी काम का नहीं रहा। मियाँ ने मरते वक़्त इसे मसऊद को देकर कहा था कि तुम इसके मालिक हो, मगर अपने जिगर के टुकड़े मसऊद को कहाँ ढूँढ़ूं। रोते-रोते अंधी हो गयी, सारी दुनिया की ख़ाक छानी, मगर उसका कहीं पता न लगा। अब जिन्दगी से तंग आ गयी हूँ, जीकर क्या करूँगी। यह अमानत मेरे पास है, जिसका जी चाहे ले ले।

दरबार में सन्नाटा छा गया। लोग हैरत के मारे मूरत-से बन गये थे कि जैसे एक जादूगर था जो ऊँगली के इशारे से सब का दम बन्द किये हुए था। यकायक मसऊद अपनी जगह से उठा और रोता हुआ आकर रिन्दा के पैरों पर गिर पड़ा। रिन्दा अपने जिगर के टुकड़े को देखते ही पहचान गयी, उसे छाती से लगा लिया और वह जड़ाऊ ताज उसके सर पर रखकर बोली—साहबो, यही मेरा प्यारा मसऊद और शाहे मुराद का बेटा है, तुम लोग इसकी रिआया हो, यह ताज इसका है, यह मुल्क़ इसका है और सारी ख़िलक़त इसकी है। आज से वह अपने मुल्क़ का बादशाह है अपनी क़ौमका ख़ादिम।

दरबार में क़यामत का शोर मचने लगा, दरबारी उठे और मसऊद को हाथों हाथ ले जाकर तख़्त पर मलिका शेर अफ़गन के बगल में बिठा दिया। भेंटे दी जाने लगीं, सलामियाँ दगने लगीं, नफ़ीरियों ने खुशी का गीत गाया और बाजों ने जीत का शोर मचाया। मगर जब ज़ोश की यहाँ खुशी जरा कम हुई और लोगों ने रिन्दा को देखा तो वह मर गयी थी। आरजूओं के पूरे होते ही जान निकल गयी। गोया आरजूएँ रूह बनकर उसके मिट्टी के तन को जिन्दा रखे हुए थीं।

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