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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…


मैं रोता हुआ घर आया और चारपाई पर मुँह ढाँपकर खूब रोया। नैनीताल जाने का इरादा खत्म हो गया। दस-बारह दिन में उन्माद की-सी दशा में इधर-उधर घूमता रहा। दोस्तों की सलाह हुई कि कुछ रोज़ के लिए कहीं घूमने चले जाओ। मेरे दिल में भी यह बात जम गयी। निकल खड़ा हुआ और दो महीने तक विंध्याचल, पारसनाथ वग़ैरह पहाड़ियों में आवारा फिरता रहा। ज्यों-त्यों करके नई-नई जगहों और दृश्यों की सैर से तबीयत तो ज़रा तस्कीन हुई। मैं आबू में था जब मेरे नाम तार पहुँचा कि मैं कालेज की असिस्टेण्ट प्रोफ़ेसरी के लिए चुना गया हूँ। जी तो न चाहता था कि फिर इस शहर में आऊँ, मगर प्रिन्सिपल के खत ने मजबूर कर दिया। लाचार, लौटा और अपने काम में लग गया। ज़िन्दादिली नाम को न बाक़ी रही थी। दोस्तों की संगत से भागता और हँसी मज़ाक से चिढ़ मालूम होती।

एक रोज़ शाम के वक़्त मैं अपने अँधेरे कमरे में लेटा हुआ कल्पना-लोक की सैर कर रहा था कि सामने वाले मकान से गाने की आवाज़ आयी। आह, क्या आवाज़ थी तीर की तरह दिल में चुभी जाती थी, स्वर कितना करुण था! इस वक़्त मुझे अन्दाज़ा हुआ कि गाने में क्या असर होता है। तमाम रोंगटे खड़े हो गये, कलेजा मसोसने लगा और दिल पर एक अजीब वेदना-सी छा गयी। आँखों से आँसू बहने लगे, हाय, यह लीला का प्यारा गीत था—

पिया मिलन है कठिन बावरी।


मुझसे ज़ब्त न हो सका, मैं एक उन्माद की सी दशा में उठा और जाकर सामने वाले मकान का दरवाज़ा खटखटाया। मुझे उस वक़्त चेतना न रही कि एक अजनबी आदमी के मकान पर आकर खड़े हो जाना और उसके एकांत में विघ्न डालना परले दर्जे की असभ्यता है।

एक बुढ़िया ने दरवाजा खोल दिया और मुझे खड़े देखकर लपकी हुई अन्दर गयी। मैं भी उसके साथ चला गया। देहलीज़ तय करते ही एक बड़े कमरे में पहुँचा। उस पर एक सफ़ेद फ़र्श बिछा हुआ था। गावतकिये भी रखे थे। दीवारों पर खूबसूरत तस्वीरें लटक रही थीं और एक सोलह-सत्रह साल का सुन्दर नौजवान जिसकी अभी मसें भीग रही थीं मनसद के क़रीब बैठा हुआ हारमोनियम पर गा रहा था। मैं कसम खा सकता हूँ कि ऐसा सुन्दर स्वस्थ नौजवान मेरी नजर से कभी नहीं गुज़रा। चाल-ढाल से सिख मालूम होता था। मुझे देखते ही चौंक पड़ा और हारमोनियम छोड़कर खड़ा हो गया। शर्म से सिर झुका लिया और कुछ घबराया हुआ-सा नज़र आने लगा। मैंने कहा—माफ़ कीजिएगा, मैंने आपको बड़ी तकलीफ़ दी। आप इस फन के उस्ताद मालूम होते हैं। ख़ासकर जो चीज़ अभी आप गा रहे थे, वह मुझे पसन्द है।

नौजवान ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी तरफ़ देखा और सर नीचा कर लिया और होंठों ही में कुछ अपने नौसिखिएपन की बात कही। मैंने फिर पूछा—आप यहाँ कब से हैं?

नौजवान—तीन महीने के क़रीब होता है।

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