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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…


मेहर सिंह ने मेरी तरफ़ अचम्भे से देखर कहा—आप दिल्लगी करते हैं।

मैं—दिल्लगी नहीं, मैं सच कहता हूँ। मुझे खुद आश्चर्य होता है कि इतने कम दिनों में तुमने इतनी योग्यता क्योंकर पैदा कर ली। अभी तुम्हें अंग्रेजी शुरू किये तीन बरस से ज़्यादा नहीं हुए।

मेहर सिंह—क्या मैं किसी पढ़ी-लिखी लेडी को खुश रख सकूँगा।

मैं—(जोश से) बेशक!

गर्मी का मौसम था। मैं हवा खाने शिमले गया हुआ था। मेहर सिंह भी मेरे साथ। वहाँ मैं बीमार पड़ा। चेचक निकल आयी। तमाम जिस्म में फफोले पड़ गये। पीठ के बल चारपाई पर पड़ा रहता। उस वक़्त मेहर सिंह ने मेरे साथ जो-जो एहसान किये वह मुझे हमेशा याद रहेंगे। डाक्टरों की सख़्त मनाही थी कि वह मेरे कमरे में न आवे मगर मेहर सिंह आठों पहर मेरे ही पास बैठा रहता। मुझे खिलाता-पिलाता, उठाता-बिठाता। रात-रात भर चारपाई के क़रीब बैठकर जागते रहना मेहर सिंह ही का काम था। सगा भाई भी इससे ज़्यादा सेवा नहीं कर सकता था। एक महीना गुज़र गया। मेरी हालत रोज़-ब-रोज़ बिगडती जाती थी। एक रोज़ मैंने डाक्टर को मेहर सिंह से कहते हुए सुना कि ‘इनकी हालत नाज़ुक है। मुझे यक़ीन हो गया कि अब न बचूँगा, मगर मेहर सिंह कुछ ऐसी दृढ़ता से मेरी सेवा शुश्रुषा में लगा हुआ था कि जैसे वह मुझे जबर्दस्ती मौत के मुँह से बचा लेगा। एक रोज़ शाम के वक़्त मैं कमरे में लेटा हुआ था कि किसी के सिसकी लेने की आवाज़ आयी। वहाँ मेहर सिंह को छोड़कर और कोई न था। मैंने पूछा—मेहर सिंह, मेहर सिंह, तुम रोते हो!

मेहर सिंह न ज़ब्त करके कहा—नहीं, रोऊँ क्यों, और मेरी तरफ़ बड़ी दर्द भरी आँखों से देखा।

मैं—तुम्हारे सिसकने की आवाज़ आयी।

मेहर सिंह—वह कुछ बात न थी। घर की याद आ गयी थी।

मैं—सच बोलो।

मेहर सिंह की आँखें फिर डबडबा आयीं। उसने मेज़ पर से आइना उठाकर मेरे सामने रख दिया। हे नारायण! मैं खुद अपने को पहचान न सका। चेहरा इतना ज़्यादा बदल गया था रंगत बजाय सुर्ख के सियाह हो रही थी और चेचक के बदनुमा दागों ने सूरत बिगाड़ दी थी। अपनी यह बुरी हालत देखकर मुझसे भी ज़ब्त न हो सका और आँखें डबडबा गयीं। वह सौन्दर्य जिस पर मुझे इतना गर्व था बिलकुल विदा हो गया था।

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