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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…

सांसारिक प्रेम और देश प्रेम

शहर लन्दन के एक पुराने टूटे-फूटे होटल में जहाँ शाम ही से अंधेरा हो जाता है, जिस हिस्से में फ़ैशनेबुल लोग आना ही गुनाह समझते हैं और जहाँ जुआ, शराबख़ोरी और बदचलनी के बड़े भयानक दृश्य हरदम आँख के सामने रहते हैं उस होटल में, उस बदचलनी के अख़ाडे में इटली का नामवर देश-प्रेमी मैज़िनी खामोश बैठा हुआ है। उसका सुन्दर चेहरा पीला है, आँखों से चिन्ता बरस रही है, होंठ सूखे हुए हैं और शायद महीनों से हज़ामत नहीं बनी। कपड़े मैले-कुचैले हैं। कोई व्यक्ति जो मैज़िनी को पहले से न जानता हो, उसे देखकर यह ख़याल करने से नहीं रुक सकता कि हो न हो यह भी उन्हीं अभागे लोगों में है जो अपनी वासनाओं के गुलाम होकर जलील से ज़लील काम करते हैं।

मैज़िनी अपने विचारों में डूबा हुआ है। आह बदनसीब क़ौम! ऐ मज़लूम इटली! क्या तेरी क़िस्मतें कभी न सुधरेंगी; क्या तेरे सैकड़ों सपूतों का खून ज़रा भी रंग न लायेगा। क्या तेरे देश से निकाले हुए हज़ारों जाँनिसारों की आहों में ज़रा भी तासीर नहीं! क्या तू अन्याय और अत्याचार और गुलामी के फंदे में हमेशा गिरफ्तार रहेगी। शायद तुझमें अभी सुधरने की स्वतन्त्र होने की योग्यता नहीं आयी। शायद मेरी क़िस्मत में कुछ दिनों और ज़िल्लत और बर्बादी झेलनी लिखी है। आज़ादी हाय आज़ीदी, तेरे लिए मैंने कैसे-कैसे दोस्त, जान से प्यारे दोस्त कुर्बान किये। कैसे-कैसे नौजवान होनहार नौजवान, जिनकी मांएं और बीवियां आज उनकी क़ब्र पर आंसू बहा रही हैं और अपने कष्टों और आपदाओं से तंग आकर उनके वियोग के कष्ट में अभागे, आफ़त के मारे मैज़िनी को शाप दे रही हैं। कैसे-कैसे शेर जो दुश्मनों के सामने पीठ फेरना न जानते थे, क्या यह सब कुर्बानियाँ, यह सब भेंटें काफ़ी नहीं हैं? आज़ादी, तू ऐसी क़ीमती चीज़ है! हां तो फिर मैं क्यों जिन्दा रहूँ? क्या यह देखने के लिए कि मेरा वतन, मेरा प्यारा देश, धोखेबाज, अत्याचारी दुश्मनों के पैरों तले रौंदा जाये, मेरे प्यारे भाई, मेरे प्यारे हमवतन, अत्याचार का शिकार बने। नहीं मैं यह देखने के लिए जिन्दा नहीं रह सकता!

मैज़िनी इन्हीं ख़यालों में डूबा हुआ था कि उसका दोस्त रफ़ेती जो उसके साथ निर्वासित किया गया था, इस कोठरी में दाख़िल हुआ। उसके हाथ में एक बिस्कुट का टुकड़ा था। रफ़ेती उम्र में अपने दोस्त से दो-चार बरस छोटा था। भंगिमा से सज्जनता झलक रही थी। उसने मैज़िनी का कंधा पकड़कर हिलाया और कहा—जोज़ेफ़, यह लो, कुछ खा लो।

मैज़िनी ने चौंककर सर उठाया और बिस्कुट देखकर बोला—यह कहां से लाये? तुम्हारे पास पैसे कहां थे?

रफ़ेती—पहले खा लो फिर यह बातें पूछना, तुमने कल शाम से कुछ नहीं खाया है।

मैज़िनी—पहले यह बता दो, कहां से लाये। जेब में तम्बाकू का डिब्बा भी नज़र आता है। इतनी दौलत कहाँ हाथ लगी?

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