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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


प्रतिदिन वह इस समय तक विरजन के घर पहुंच जाता था। आज जो देर हुई तो वह अकुलायी हुई इधर-उधर देख रही थी। अकस्मात द्वार पर झांकने आई, तो प्रताप को दोनों हाथों से मुख ढांके हुए देखा। पहले तो समझी कि इसने हंसी से मुख छिपा रखा है। जब उसने हाथ हटाये तो आंसू दीख पड़े। चौंककर बोली– लल्लू क्यों रोते हो? बता दो।

प्रताप ने कुछ उत्तर न दिया, वरन् और सिसकने लगा।

विरजन बोली– न बताओगे! क्या चाची ने कुछ कहा? जाओ, तुम चुप नहीं होते।

प्रताप ने कहा– नहीं, विरजन, मां बहुत बीमार है।

यह सुनते ही वृजरानी दौड़ी और एक सांस में सुवामा के सिरहाने जा खड़ी हुई। देखा तो वह सुन्न पड़ी हुई है, आंखें मुंदी हुई हैं और लम्बी सांसें ले रही हैं। उनका हाथ थाम कर विरजन झिंझोड़ने लगी– चाची, कैसा जी है, आंखें खोलो, कैसा जी है?

परन्तु चाची ने आंखें न खोलीं। तब वह ताक पर से तेल उतारकर सुवामा के सिर पर धीरे-धीरे मलने लगी। उस बेचारी को सिर में महीनों से तेल डालने का अवसर न मिला था, ठण्डक पहुंची तो आंखें खुल गयीं।

विरजन– चाची, कैसा जी है? कहीं दर्द तो नहीं है?

सुवामा– नहीं, बेटी दर्द कहीं नहीं है। अब मैं बिल्कुल अच्छी हूं। भैया कहां है?

विरजन– वह तो मेरे घर है, बहुत रो रहे हैं।

सुवामा– तुम जाओ, उसके साथ खेलो, अब मैं बिल्कुल अच्छी हूं।

अभी ये बातें हो रही थीं कि सुशीला का भी शुभागमन हुआ। उसे सुवामा से मिलने की तो बहुत दिनों से उत्कंठा थी, परन्तु कोई अवसर न मिलता था। इस समय वह सांत्वना देने के बहाने आ पहुंची। विरजन ने अपनी माता को देखा तो उछल पड़ी और ताली बजा-बजाकर कहने लगी– मां आयी, मां आई।

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