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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


विरजन ने बोलना चाहा, परन्तु कण्ठ रुंध गया और आंखें भर आयीं। प्रताप ने इधर-उधर देखकर फिर कहा– क्या यह सब तुमने साफ किया? तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ। विरजन ने इसका भी उत्तर न दिया।

प्रताप– विरजन, तुम मुझे भूल क्यों नहीं जातीं?

विरजन ने आर्द्र नेत्रों से देखकर कहा– क्या तुम मुझे भूल गये?

प्रताप ने लज्जित होकर मस्तक नीचा कर लिया। थोड़ी देर तक दोनों भावों से भरे भूमि की ओर ताकते रहे। फिर विरजन ने पूछा– तुम मुझसे क्यों रुष्ट हो? मैंने कोई अपराध किया है?

प्रताप– न जाने क्यों अब तुम्हें देखता हूं, तो जी चाहता है कि कहीं चला जाऊं।

विरजन– क्या तुमको मेरी तनिक भी मोह नहीं लगती? मैं दिन भर रोया करती हूं। तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती? तुम मुझसे बोलते तक नहीं। बतलाओ मैंने तुम्हें क्या कहा जो तुम रूठ गये?

प्रताप– मैं तुमसे रूठा थोड़े ही हूं।

विरजन– तो मुझसे बोलते क्यों नहीं।

प्रताप– मैं चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं। तुम धनवान हो, तुम्हारे माता-पिता धनी हैं, मैं अनाथ हूं। मेरा तुम्हारा क्या साथ?

विरजन– अब तक तो तुमने कभी यह बहाना न निकाला था, क्या अब मैं अधिक धनवान हो गई?

यह कहकर विरजन रोने लगी। प्रताप भी द्रवित हुआ, बोला– विरजन। हमारा तुम्हारा बहुत दिनों तक साथ रहा। अब वियोग के दिन आ गये। थोड़े दिनों में तुम यहाँ वालों को छोड़कर अपने ससुराल चली जाओगी। उस समय मुझे अवश्य ही भूल जाओगी। इसलिए मैं भी चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं। परन्तु कितना ही चाहता हूं कि तुम्हारी बातें स्मरण में न आयें, वे नहीं मानतीं। अभी सोते-सोते तुम्हारा ही स्वप्न देख रहा था।

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