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आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


हम जानते हैं कि हमारा यह शरीर एक न एक दिन नष्ट होगा। जिसका जन्म हुआ है, इसलिए मरण भी होगा ही। किन्तु आत्मा का कोई रूप नहीं है, इसलिए वह आदि और अन्त से परे है। इसका अस्तित्व अनादि काल से है। जैसे काल शाश्वत है, वैसे ही मनुष्य की आत्मा भी शाश्वत है। फिर, यह अवश्य ही सर्वव्यापक होगी। केवल उन्हीं वस्तुओं का विस्तार सीमित होता है, जिनका कोई रूप होता है। जिसका कोई रूप ही नहीं, उसके विस्तार की क्या सीमा है? इसलिए अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा, जो मुझमें, तुममें, सब में है, सर्बव्यापक है। और जब ऐसी ही बात है, तब तो सूर्य में, पृथ्वी पर, अमेरिका में, इंग्लैण्ड में हर जगह तुम सामान्य रूप से वर्तमान हो। किन्तु आत्मा, शरीर और मन के माध्यम से ही काम करती है। अत: जहाँ शरीर और मन है, वहीं उसका कार्य दृष्टिगोचर होता है।

हमारा हर कार्य, जो हम करते हैं, हर विचार, जो हम सोचते हैं मन पर एक छाप छोड़ जाता है, जिसे संस्कृत में 'संस्कार' कहते हैं। ये सभी संस्कार मिल-जुलकर एक ऐसी महती शक्ति का रूप लेते हैं, जिसे 'चरित्र कहते हैं। उसने स्वयं के लिए जो निर्माण किया है, वह उस मनुष्य का चरित्र है; यह मानसिक एवं दैहिक क्रियाओं का परिणाम है, जिन्हें उसने अपने जीवन में किया है। संस्कारों की समष्टि वह शक्ति है, जिससे यह निश्चित होता है कि मृत्यु के बाद मनुष्य किस दिशा में जायगा। मनुष्य के मरने पर उसका शरीर तत्त्वों में मिल जाता है। किन्तु संस्कार मन में संलग्न रहते हैं और चूंकि मन शरीर की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म तत्त्वों से बना है, इसलिए विघटित नहीं होता। क्योंकि भौतिक द्रव्य जितना ही सूक्ष्मतर होता है, उतना ही दृढ़तर होता है। अगत्या मन भी विघटित होता है। हम सभी उसी विघटन की स्थिति के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

इस सम्बन्ध में सब से अच्छा उदाहरण, जो मेरी समझ में अभी आ रहा है, वह चक्रवात का है। विभिन्न वायु-तरंगे विभिन्न दिशाओं से आकर एक बिन्दुपर मिलती हैं और एकाकार होकर मिल जाती हैं और मिलन-बिन्दु में वे संघटित हो जाती हैं तथा चक्र बनाती जाती हैं। चक्राकार स्थिति में वे धूलि-कण, कागज के टुकड़े आदि नाना पदार्थों का एक रूप बना लेती हैं, जिन्हें बाद में वे गिराकर पुन: किसी दूसरे स्थान पर जाकर यही क्रम फिर रचती हैं। ठीक इसी प्रकार वे शक्तियाँ, जिन्हें संस्कृत में 'प्राण कहते हैं, परस्पर मिलकर भौतिक पदार्थों के संयोग से मन तथा शरीर की रचना करती हैं।

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