धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व आत्मतत्त्वस्वामी विवेकानन्द
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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
आत्मा न कभी आती है, न जाती है; यह न तो कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। प्रकृति ही आत्मा के सम्मुख गतिशील है और इस गति की छाया आत्मा पर पड़ती रहती है। भ्रमवश आत्मा सोचती है कि प्रकृति नहीं, बल्कि वही गतिशील है। जब तक आत्मा ऐसा सोचती रहती है, तब तक वह बन्धन में रहती है; किन्तु जब उसे यह पता चल जाता है कि यह सर्वव्यापक है, तो वह मुक्ति का अनुभव करती है। जब तक आत्मा बन्धन में रहती है, तब तक उसे जीव कहते हैं। इस तरह तुमने देखा कि समझने की सुविधा के लिए ही हम ऐसा कहते हैं कि आत्मा आती है और जाती है, ठीक वैसे ही, जैसे खगोलशास्त्र में सुविधा के लिए यह कल्पना करने के लिए कहा जाता है कि सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ घूमता है, यद्यपि वस्तुत: बात वैसी नहीं है। तो जीव, अर्थात् आत्मा, ऊँचे या नीचे स्तर पर आता-जाता रहता है। यही सुप्रसिद्ध पुनर्जन्मवाद का नियम है; सृष्टि इसी नियम से बद्ध है।
इस देश में लोगों को यह बात विचित्र लगती है कि आदमी पशु के स्तर से आया है। क्यों? अगर ऐसा न हो, तो इन करोड़ों पशुओं की क्या गति होगी? क्या उनका कोई अस्तित्व नहीं है? अगर हमारे अन्दर आत्मा का निवास है, तो उनके अन्दर भी है और अगर उनके अन्दर नहीं है, तो हमारे अन्दर भी नहीं है। यह कहना कि केवल मनुष्यों में ही आत्मा होती है, पशुओं में नहीं, बिलकुल बेतुका है। मैंने पशु से भी गये-गुजरे मनुष्यों को देखा है।
मानवात्मा ने ऊँचे तथा नीचे, विभिन्न स्तरों पर निवास किया है। संस्कारों के चलते यह एक से दूसरा रूप बदलती रहती है। किन्तु जब यह मनुष्य के रूप में उच्चतम स्तर पर रहती है, तभी मुक्ति उसे मिल पाती है। इस तरह मनुष्यत्व का धरातल सब से ऊँचा धरातल है, देवत्व से भी ऊँचा। क्योंकि मनुष्यत्व के धरातल पर ही आत्मा को मुक्ति मिल सकती है। यह सम्पूर्ण विश्व कभी ब्रह्म में ही था। ऐसा लगता है कि ब्रह्म से इसका प्रक्षेपण हुआ और तब से सतत भ्रमण करता हुआ यह पुन: अपने उद्गम-स्थान पर पहुँच जाना चाहता है। यह सारा क्रम कुछ ऐसा ही है, जैसे डाइनेमो से बिजली का निकलना और विभिन्न धाराओं से चक्कर काटकर पुन: उसी में चला जाना।
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