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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
वेदान्त दर्शन का आदि-अन्त है - 'संसार त्याग दो' - असत्य को छोड़कर सत्य की खोज करो। जिन्हें संसार से आसक्ति है, वे पूछ सकते है - ''क्यों हम संसार से विमुख होने का प्रयास करें? क्यों हम मौलिक केन्द्र पर लौट चलने के लिए संघर्ष करें? माना कि हम सभी ईश्वर के यहाँ से आये हैं; पर हम इस संसार को पर्याप्त आनन्दप्रद पाते हैं। और तब हम क्यों न संसार का अधिकाधिक उपभोग करें? इससे विमुख होने के लिए प्रयास ही क्यों करें?'' वे कहते हैं - देखो, संसार में कितना विकास हो रहा है, आनन्द के कितने प्रसाधन निकाले जा रहे हैं। यह सब कुछ तो आनन्दोपभोग के लिए ही है न! हम क्यों इन सारी चीजों से मुँह मोड़कर उस वस्तु के लिए तपस्या करें, जो इन सब से भिन्न हैं? इन सारी बातों के लिए जवाब यह है कि इस संसार का निश्चय ही अन्त होगा, यह खण्ड-खण्ड होकर विनष्ट हो जायगा। इन सारे आनन्दों को हम कई जन्मों में भोग चुके हैं। जिन चीजों को अभी हम देख रहे हैं, उनका आविर्भाव कई बार हो चुका है। मैं यहाँ कितनी ही बार आ चुका हूँ और तुमसे बातें कर चुका हूँ। जिन शब्दों को तुम अभी सुन रहे हो, उन्हें इसके पहले भी अनेक बार सुन चुके हो और अभी और भी कितनी बार सुनोगे। हमारे शरीर बदलते रहते हैं, पर आत्माएँ तो एक ही रहती हैं। दूसरी बात यह है कि जिन चीजों को तुम अभी देख रहे हो, वे कालान्तर से आती ही रहती हैं।
यह इस उदाहरण से स्पष्ट हो जायगा। मान लो कि तीन-चार पांसे हैं और जब तुम उन्हें फेंकते हो, तो किसी में पाँच, किसी में चार, किसी में तीन और किसी में दो अंक निकल आते हैं। अगर तुम उन्हें बार-बार फेंकते रहो, तो निश्चय ही ये अंक दुहराये जायँगे। हाँ, यह नहीं कहा जा सकता कि कितनी बार फेंकने से ऐसा होगा; वह तो संयोग पर निर्भर करता है। ठीक यही बात आत्माओं तथा उनसे सम्बद्ध वस्तुओं के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। एक बार जो रचनाएँ हुईं, और उनके विघटन हुए, उन्हीं की आवृत्ति बार-बार होगी, चाहे दो आवृत्तियों के बीच जितना भी समय लगे। पैदा होना, खाना-पीना और फिर मर जाना - जीवन का यह क्रम न जाने कितनी बार आता-जाता रहेगा। कुछ लोग तो ऐसे हैं, जो सांसारिक भोग से ऊपर उठ ही नहीं सकते। पर वे लोग जो ऊपर उठना चाहते हैं, यह अनुभव करते हैं कि ये आनन्द पारमार्थिक नहीं हैं, वरन् नगण्य है।
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