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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


आत्मा, प्रकृति तथा ईश्वर


वेदान्त दर्शन के अनुसार मनुष्य को तीन तत्त्वों से बना हुआ कह सकते हैं। उसका बाह्यतम अंश शरीर है, अर्थात् मनुष्य का स्थूल रूप, जिसमें आंख, नाक, कान आदि संवेदन के साधन हैं। यह आंख भी दृष्टि का कारण नहीं है, यह केवल यन्त्र भर है। इसके पीछे इन्द्रिय है। इसी प्रकार कान श्रोत्रेन्द्रिय नहीं हैं, वे केवल साधन हैं, उनके पीछे इन्द्रिय है, अथवा वह है जिसे आधुनिक शरीर-शास्त्र की भाषा में केन्द्र कहते हैं। इनको संस्कृत में इन्द्रिय कहते हैं।

यदि आंखों को नियन्त्रित करनेवाले केन्द्र नष्ट हो जायें, तो आँखें देख न सकेंगी। यही बात हमारी सभी इन्द्रियों के सम्बन्ध में है। फिर इन्द्रियां जब तक अन्य किसी एक दूसरी वस्तु से संलग्न नहीं, तब तक वे स्वयं किसी चीज के संवेदन में समर्थ नहीं हो पातीं। वह वस्तु है मन। तुमने अनेक बार देखा होगा कि जब तुम किसी चिन्तन में तल्लीन थे, तुमने घड़ी की टिन-टिन् को नहीं सुना। क्यों? तुम्हारे कान अपने स्थान पर थे, तरंगों का उनमें प्रबेश भी हुआ, वे मस्तिष्क की ओर परिचालित भी हुईं, फिर भी तुमने नहीं सुना, क्योंकि तुम्हारी इन्द्रिय के साथ तुम्हारा मन संयुक्त नहीं था। बाह्य वस्तुओं की प्रतिमाएँ इन्द्रियों के ऊपर पड़ती हैं और जब इन्द्रियों से मन जुड़ जाता है, तब वह उस प्रतिमा को ग्रहण करता है और वह उसे जो रूप-रंग प्रदान करता है, उसे अहंता अथवा 'मैं’ कहते हैं।

एक उदाहरण लो : मैं किसी कार्य में व्यस्त हूँ और एक मच्छर मेरी अँगुली में काट रहा है। मैं इसका अनुभव नहीं करता, क्योंकि मेरा मन किसी दूसरी वस्तु में लगा हुआ है। बाद में जब मेरा मन इन्द्रियों से प्रेषित प्रतिमाओं से संयुक्त हो जाता है, तब प्रतिक्रिया होती है। इस प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मैं मच्छर की उपस्थिति के प्रति सचेत हो जाता हूँ। इसी प्रकार केवल मन का इन्द्रिय से संयुक्त हो जाना पर्याप्त नहीं है, इच्छा के रूप में प्रतिक्रिया का होना भी आवश्यक है। वह शक्ति जहाँ से प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, जो ज्ञान और निश्चय करने की शक्ति है, उसे 'बुद्धि' कहते हैं।

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