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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

तभी वहाँ लक्ष्मी आ पहुँची। उस युवक ने तपाक से कहा, ''थोड़े ही दिन पहले इस स्त्री का पति दुर्घटना में मारा गया है।''

मैंने उसकी क्षमता की जाँच करने के लिए न जाने कहाँ-कहाँ के प्रश्न पूछे। मुझे मानना पडा कि अब तक जितने भी ज्योतिषियों के सम्पर्क में मैं आया हूँ उसके बीच वही सबसे सच्चा था। कभी मैंने भी ज्योतिष-शास्त्र का अध्ययन करना चाहा था। यदि किसी सच्चे ज्योतिषी से मुलाकात हो जाती, तो उसका शिष्यत्व मैंने अवश्य ग्रहण कर लिया होता, किन्तु अब तक जो मिले थे, सब कच्चे ही थे। उनमें से कुछ ऐसे थे, जो ज्योतिष-शास्त्री नहीं, मानस-शास्त्री थे। वे सिर्फ मानवीय कमजोरियों के जानकार थे और उतने से आधार पर ही भविष्यवाणी करते थे। अधिकांश की मनोवृत्ति 'लगा तो तीर, नहीं तो तुक्का' से बेहतर नहीं थी। सच्चे ज्योतिषी की खोज में मैं अनेक विख्यात ज्योतिषियों से मिल चुका था। वे विख्यात तो थे, लेकिन न जाने क्यों, मुझे सच्चे महसूस नहीं हुए थे।

स्वाभाविक ही था कि मैंने उस युवक से पूछ लिया, आपने यह विद्या किससे सीखी है?''  

''अपनी बहन से।''

''बहन से? तो क्या...... आपकी बहन भी ज्योतिष जानती हैं?'' मेरा आश्चर्य बढा।

''उसके सामने तो मेरी कोई हस्ती ही नहीं। वह आपके मन की हर बात बता सकती है। न जाने कितनों को उसने सच्ची राह दिखाई है। कितनों ही का भविष्य उसने सच्चा-सच्चा बयान किया है और सुधारा भी है। मैं उसके सामने धूल हूँ।''  

''क्या मैं उनसे मिल सकता हूँ?'

''जरूर! लेकिन पहले मुझे दीदी से पूछना होगा।'

''क्या नाम है उनका? रहती कहीं हैं?' मैंने जानना चाहा।

''नाम है महायोगिनी अम्बिकादेवी। यहीं, कल्याण कैम्प में रहती हैं।''

''ओह!''

''मेरी दक्षिणा?' युवक ने अचानक मेरी ओर हाथ बढा दिया था। मैं उसकी याचक मुद्रा को देखता रह गया। जेब में टटोल कर मैंने पर्स निकाला और उसे पाँच रुपये का एक नोट दक्षिणा में दे दिया। उस जमाने में पाँच रुपये की दक्षिणा बहुत अच्छी मानी जाती थी। युवक मुस्कराया और चल दिया।

मैंने उससे वचन ले लिया था, वह लौटकर आयेगा, किन्तु चार दिन बीत गये और वह दिखाई न दिया। मुझे अकुलाहट होने लगी। महायोगिनी अम्बिकादेवी के बारे में स्वयं ही पूछताछ कर, आगे बढ़ने का फैसला मैंने कर लिया।

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