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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

''जब ऊपर वाले का बुलावा आयेगा, तभी तुम्हारे चक्कर पूरे होंगे, क्यों? तभी तुम्हें जरा फुरसत मिला करेगी, है न?''

सभा में हास्य फैल गया। मेरी नजर में, यह संवाद इतना घिसापिटा था कि इसमें हास्य का कोई तत्त्व मैं चाहकर भी न खोज सका। महायोगिनी ने मेरी तरफ देखा भी न था। मेरे आसपास के, आगे-पीछे के लोगों से वह बातें करती जा रही थीं, किन्तु मेरी मौजूदगी को साफ नकार रही थीं। इस उपेक्षा ने मुझे अकुलाहट से सान दिया। मैंने वहाँ से उठ जाने की सोची और इसी गरज से सिंधी मित्र का हाथ हौले से दबाया।

सिन्धी मित्र मेरी तरफ अभी देख भी न पाया था कि महायोगिनी जी का स्बर सुनाई दिया, ''साई! अपने दोस्त से कहो कि अधीर न हों। मैं उनकी उपेक्षा नहीं कर रही। मुझे तो उनके साथ शान्ति से बैठकर बातें करनी हैं। इसीलिए पहले दूसरों को निबटा रही हूँ।''

उस स्वर की शान्त और ठण्डी ताकत ने मुझे बर्फ की तरह जमा दिया। मैं स्तब्ध था। मेरे मन की बात उन्होंने, उतने फासले से भी, उतनी सही-सही कैसे पकड ली थी?

मैं चुपचाप बैठा रह गया।

मुझे लगातार अहसास मिलता रहा कि महायोगिनी जी के सामने मेरा मन किसी खुली किताब की तरह पड़ा हुआ है और वह उसके जिस पन्ने को चाहती हैं, खास उसी को पलटकर पढ़ने लगती हैं। मेरे चेतन-अवचेतन में भावना-विभावना की जो भी लहरें उठ रही हैं, उन सबको यह साक्षात् देख सकती हैं।

मुझे भय लगा। पूरे शरीर में मैंने झुरझुरी महसूस की।

कुछ देर बाद अधिकांश लोग चले गये।

केवल छ: व्यक्ति शेष रहे। छ: में से दो तो मैं और सिन्धी ही थे। शेष चार जनों में एक स्त्री थी। उसकी गोद में लगभग सोलह बरस का एक किशोर अधमरी-सी हालत में पड़ा हुआ था।

मेरा ध्यान उस किशोर पर पहली बार ही गया, हालांकि मैं वहाँ उतनी देर से बैठा हुआ था।

''उसे मेरे सामने सुला दीजिए। महायोगिनी ने किशोर की ओर उँगली उठाकर उस स्त्री से कहा।

नरकंकाल हो चुके उस किशोर का पूरा बदन जकड़ा हुआ था। शरीर का कोई हिस्सा लेशमात्र भी हरकत नहीं कर रहा था।

साथ आये दो पुरुषों ने जब किशोर को उठाकर महायोगिनी के सामने सुलाया, तब भी वह अपने तमाम अंगों को सिकोड़कर ऐसे पड़ा रहा, जैसे बेजान डालियों को आड़ा-टेढ़ा रख दिया गया हो। उसके चेहरे के भी सारे स्नायु खिंचे हुए थे। किसी भी मनोभाव को व्यक्त करना उस चेहरे के लिए सम्भव था ही नहीं। यदि किशोर की पुतलियाँ स्तब्ध भाव से इधर-उधर, लगातार, हिल न रही होतीं, तो उसमें और किसी लाश में शायद ही कोई फर्क रह जाता। किशोर की वे आँखें न केवल स्तब्ध, बल्कि भयभीत भी थीं। उतनी दूरी से भी मैं उसके भय को साफ-साफ देख सकता था।

''कब से है यह बीमारी?'' महायोगिनी जी ने पूछा।

''साल भर हो गया! जाने कितने डाक्टरों को दिखाया, वैद्यराजों को दिखाया, बड़े-से-बड़े अस्पतालों में लेकर गये। कहीं कोई फर्क नहीं पड़ा। अब तो सारी आशाएँ छूट गई हैं। इसीलिए आपकी शरण में आये हैं.... '' उस स्त्री ने थरथराते स्वर में जवाब दिया।

मैं महायोगिनी अम्बिकादेवी की ओर व्यंग्य से देख रहा था।

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