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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास


पर कालीचरण न उठा। सिर नीचा किए बैठा ही रहा। चार साल पहले की बात है, सभी जानते थे कि कलकत्ता का एक व्यापारी उसकी विधवा बहन को भगा ले गया था। काफी दिनों तक तो 'ससुराल गई है' फिर 'तीरथ को गई' आदि बातें बना कर बात छिपाई गई थी, बाद में जग जाहिर हो ही गई। वह इसी डर से कि कहीं आज इतने दिनों बाद वह बात फिर न उखड़ जाए, गरदन नीचे किए सहमा बैठा रहा। अब वह स्वयं पाट का व्यापार करता है।

पर गोविंद गुस्से से तमतमा रहे थे। उठ कर फिर जोर से चीख कर बोले-'हाँ, हाँ! हम कोई भी पानी न पिएँगे, जब तक रमेश यह न बता दे कि बिना पंचों की राय के, इन बदजात औरतों को यहाँ क्यों बुलाया? हमारे पंच हैं वेणी बाबू, हालदार और यदु मुकर्जी!'

और सच ही, दस पाँच और भी आदमी, कंधों पर दुपट्टा सँभाल कर खड़े हो गए। सभी अच्छी तरह जानते थे कि इस देहाती समाज में, पासा पलटने में कौन-सी चाल उचित बैठती है।

फिर तो सब घरजानी-मनमानी करने लगे। भैरव और दीनू तो दरअसल रो-से पड़े और बेचारे कभी गोविंद की तो कभी हालदार की खुशामद करते और कभी क्षांती मौसी और लड़की की। और ऐसा ही दीखने लगा कि अब सारा-का-सारा बना-बनाया मामला बिगड़ने ही वाला है।

रमेश की एक तो वैसे ही भूख-प्यास के कारण अजीब दशा हो रही थी, अब इस काण्ड से तो उनके हाथ-पैर और फूल गए।

तभी पीछे से पुकार आई 'रमेश!' और पुकार के साथ ही सबकी दृष्टि उस आवाज की तरफ घूमी। सबने देखा कि विश्वेरश्वारी खड़ी हैं। एक साथ सब चकित-से रह गए। रमेश ने भी देखा कि ताई जी उसके अनजाने ही जाने कब आ गई हैं, और उपस्थित लोगों ने भी भौंचक हो कर देखा कि यह ही विश्वेमश्व।री हैं, वेणी की माँ।

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