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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास


रमेश के जाते ही, वेणी बाबू झट वहाँ फिर आ पहुँचे। वे वहाँ से भागे नहीं थे, बल्कि वहीं कहीं छिप कर, रमेश के वहाँ से टलने की बाट जोह रहे थे। उन्होंने प्रसन्न हो कर कहा-'मौसी, तुमने तो खूब भिगो-भिगोकर सुनाई! हम तो कभी इतनी तेजी से कह भी नहीं सकते थे। क्या कोई दरबान इस काम को कर सकता था? मैं तो यहीं खड़ा छिपा-छिपा सब सुन रहा था। यह अच्छा ही हुआ कि वह अपना-सा मुँह लिए चला गया।'

मौसी ने साभिमान कहा-'अगर तुम हम औरतों पर यह भार छोड़ खिसक न जा कर, स्वयं ही यह बात कहते तो और भी अच्छा होता और अगर अपने मुँह से यह बातें नहीं कह पा रहे थे, तो भी यहीं खड़े-खड़े सुनते कि मैंने उसे क्या-क्या कहा! तुम्हारा इस तरह जाना ठीक नहीं था!'

मौसी की कड़वी बातें सुन वेणी कुछ अप्रतिभ-सा हो गया। वह तय न कर पाया कि इसका क्या जवाब दे। रमा ने रसोई में बैठे-बैठे कहा-'अच्छा ही हुआ मौसी, जो तुमने अपने आप ही इन बातों को कह दिया। और कोई तुम्हारी तरह ऐसी जहर-बुझी बातें न कह सकता था!'

रमा की इस बात पर मौसी और वेणी दोनों ही को विस्मय हुआ और मौसी ने तीखी आवाज में रमा से पूछा-'क्या कहा तूने?'

'कुछ नहीं, तुम अपनी पूजा पूरी कर लो! कई बार उसे यों ही अधूरी छोड़ तुम्हें उठना पड़ा है? देर हो रही है। आज क्या रसोई-वसोई कुछ न करने की बात तय कर ली है?'-रमा रसोई से बाहर निकल आई, बिना किसी से बोले, उधरवाली कोठरी में चली गई।

वेणी बाबू कुछ न समझ सके और उन्होंने पूछा-'यह सब क्या है?'

मौसी ने नाक सिकोड़ते हुए कहा-'मैं क्या जानूँ? इस महारानी की बात समझना, हम जैसी नौकरानियों का काम नहीं है!' इतना कह कर मौसी विक्षुब्ध हो, पूजा में फिर लग गई। वेणी भी वहाँ से चला गया।

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