आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास कुछ नहीं बोले, कमरे में जाकर बिछौने पर गर्दन झुका के विपन्न-मुख बैठ गये। पास ही चन्द्रमुखी भी चुपचाप बैठ गई। दासी तमाखू भरकर चांदी से मढ़ा हआ नारियल लाई। देवदास ने स्पर्श भी नहीं किया। चुन्नीलाल गंभीर-मुख बैठे रहे। दासी क्या करे, यह निश्चय न कर कर सकी। अंत में चन्द्रमुखी के हाथ में नारियल देकर चली गई। दो-एक फूंक खींचने के समय देवदास ने उसके मुख की ओर देखा और एकाएक अत्यंत घृणा से कह उठे- 'कितनी असभ्य और श्रीहीना है?'
इसके पहले चन्द्रमुखी को बातचीत में कोई हरा नहीं सका था। उसको अप्रतिभ करना जरा टेढ़ी खीर थी। देवदास की इस आन्तरिक घृणा की सरल और कठिन उक्ति उसके हृदय मे बिंध गई। किंतु कुछ देर बाद ही उसने अपने को संयत कर लिया। परंतु चन्द्रमुखी के मुख से धुंआ नहीं निकला। तब चुन्नीलाल के हाथ में हुक्का देकर उसने फिर एक बार देवदास के मुख की ओर देखा और फिर निःशब्द बैठी रही। तीनों ही निर्विकार हो रहे थे। केवल बीच-बीच में गुड़-गुड़ करके हुक्के का शब्द होता था, वह भी मानो डरते-डरते। मित्र मंडली में तर्क उठने पर एकाएक निरर्थक कलह हो जाने से जैसे प्रत्येक अपने मन-ही-मन फूले रहते और क्षुब्ध अन्तःकरण से कहते है कि- 'यही तो!', उसी भांति तीनों आदमी मन-ही-मन कह रहे थे - 'यही तो, यह कैसा हुआ?' जो हो, तीनों में से किसी को भी आनन्द नहीं मिला। चुन्नीलाल तो हुक्का रखकर नीचे उतर आये, शायद उन्हें कोई दूसरा काम नहीं मिला। इसलिए कमरे में अब केवल दो आदमी रह गये। देवदास ने मुख उठाकर पूछा- 'तुम अपनी दर्शनी लेती हो?'
चन्द्रमुखी ने सहसा कोई उत्तर नहीं दिया। इस समय उसकी उम्र छब्बीस वर्ष की थी। इन नौ-दस वर्ष के बीच में उसका कितने ही विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के साथ घनिष्ठ परिचय हो चुका था, किन्तु इस प्रकार के अद्भुत मनुष्य से एक दिन भी भेंट नहीं हुई थी। कुछ इधर-उधर करके उसने कहा- 'आपके पांव की धूल जब पड़ी है...!'
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