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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञोपवीत

गायत्री और यज्ञोपवीत

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :67
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9695

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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।


(11) ब्राह्मण पदाधिकारी बालक का उपवीत 5 से 8 वर्ष तक की आयु में, क्षत्रिय का 6 से 11 तक, वैश्य का 8 से 12 तक की आयु में यज्ञोपवीत कर देना चाहिए। यदि ब्राह्मण का 16 वर्ष तक, क्षत्रिय का 22 वर्ष तक, वैश्य का 24 वर्ष तक, उपवीत न हो तो वह 'सावित्री पतित' हो जाता है। तीन दिन उपवास करते हुए पंचगव्य पीने से सावित्री पतित मनुष्य प्रायश्चित्त करके शुद्ध होता है।

(12) ब्राह्मण का वसन्त ऋतु में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में और वैश्य का उपवीत शरद् ऋतु में होना चाहिए। पर जो 'सावित्री पतित' हैं अर्थात् निर्धारित आयु से अधिक का हो गया है, उसका भी उपवीत कर देना चाहिए।

(13) ब्रह्मचारी को एक तथा गृहस्थ को दो जनेऊ धारण करने चाहिए क्योंकि गृहस्थ पर अपना तथा धर्म-पत्नी दोनों का उत्तरदायित्व होता है।

(14) यज्ञोपवीत की शुद्धि नित्य करनी चाहिए। नमक, क्षार, साबुन, रीठा आदि की सहायता से जल द्वारा उसे भली प्रकार रगड़ कर नित्य स्वच्छ करना चाहिए ताकि पसीने का स्पर्श होने से जो नित्य ही मैल भरता रहता है, वह साफ रहे और दुर्गन्ध अथवा जुयें आदि जमने की सम्भावना न रहे।

(15) मल-मूत्र त्याग करते समय अथवा मैथुन काल में यज्ञोपवीत कमर से ऊपर रखना चाहिए। इसलिए उसे कान पर चढ़ा लिया जाता है। कान की जड़ को मलमूत्र त्यागते समय डोरे से बाँध देने से बवासीर, भगन्दर जैसे गुदा के रोग नहीं होते, ऐसा भी कहा जाता है।

(16) यज्ञोपवीत आदर्शवादी भारतीय संस्कृति की मूर्तिमान प्रतिमा है, इसमें भारी तत्व ज्ञान और मनुष्य को देवता बनाने वाला तत्व-ज्ञान भरा हुआ है। इसलिए इसे धारण करने की परिपाटी का अधिक से अधिक विस्तार करना चाहिए। चाहे लोग उस रहस्य को समझने तथा आचरण करने में समर्थ न हों तो भी इसलिए उसका धारण करना आवश्यक है कि बीज होगा तो अवसर मिलने पर उग भी आयेगा।

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