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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


क्या धर्म? क्या अधर्म?

सच्चिदानन्द की आराधना


वैसे तो धर्म शब्द नाना अर्थों में व्यक्त होता है, पर दार्शनिक दृष्टि से धर्म का अर्थ स्वभाव ठहराता है। अग्नि का धर्म गर्मी है अर्थात अग्नि का स्वभाव उष्णता है। हर एक वस्तु का एक धर्म होता है जिसे वह अपने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त धारण किए रहती है। मछली का प्रकृति धर्म जल में रहना है, सिंह स्वभाबतः मांसाहारी है। हर एक जीवित एवं निर्जीव पदार्थ एक धर्म को अपने अन्दर धारण किए हुए है। धातुऐं अपने-अपने स्वभाव धर्म के अनुसार ही काम करती हैं। धातु-विज्ञान के जानकार समझते हैं कि अमुक प्रकार का लोहा इतनी आग में गलता है और वह इतना मजबूत होता है, उसी के अनुसार वे सारी व्यवस्था बनाते है। यदि लोहा अपना धर्म छोड़ दे, कभी कम आग से गले कभी ज्यादा से इसी प्रकार उसकी मजबूती का भी कुछ भरोसा न रहे तो निस्संदेह लोहकारों का कार्य असम्भव हो जाय। नदियां कभी पूरब को बहें कभी पश्चिम को अग्नि कभी गरम हो जाय कभी ठण्डी तो आप सोचिए कि दुनियाँ कितनी अस्थिर हो जाय। परन्तु ऐसा नहीं होता, विश्वास का एक-एक परमाणु अपने नियम धर्म का पालन करने में लगा हुआ है, कोई तिल भर भी इधर से उधर नहीं हिलता। धर्म रहित कोई भी वस्तु इस विश्व में स्थिर नहीं रह सकती।

बहुत काल की खोज के उपरान्त मनुष्य का मूल धर्म मालूम कर लिया गया है। जन्म से लेकर मृत्यु तक सम्पूर्ण मनुष्य अपने मूलभूत धर्म का पालन करने में प्रवृत्त रहते हैं। आपको यह सुनकर कि कोई भी मनुष्य धर्म रहित नहीं है, आश्चर्य होता होगा इसका कारण यह है कि आप मनुष्य कृत रीति-रिबाजों, मजहबों, फिरकों, प्रथाओं को धर्म नाम दे देते हैं। यह सब तो व्यवस्थायें हैं जो वास्तविक धर्म से बहुत ऊपर की उथली वस्तुऐं हैं, आपको वास्तविकता का पता लगाने के लिए एक सत्य शोधक की भांति बहुत गहरा उतरकर मनुष्य स्वभाव का अध्ययन करना होगा।

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