लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

322 पाठक हैं

धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


दो रसोइया भोजन बनाते हैं। एक का भोजन अच्छा बना दूसरे ने अज्ञान से उसमें बहुत-सी त्रुटिया रहने दीं। खाने वाले अच्छा भोजन बनाने वाले की प्रशंसा करेगे, उसे सुयोग्य ठहरावेंगे। परन्तु जिसने भोजन बनाने में बहुत-सी भूलें की थीं, उसकी तैयार की हुई वस्तुऐं ठुकराई जायगीं, खाने वाले उससे नाराज होंगे, हर कोई कटु शब्द कहेगा। मालिक उसे दण्ड भी देगा। दोनों ही रसोइयों ने वस्तुत: अपना नियत कर्म ही किया था। मूल कर्म में कुछ दोष न था पर कार्य करने की पद्धति में भेद हो जाने से एक को भलाई और दूसरे को बुराई मिली, एक ने आदर पाया, दूसरा तिरस्कार का भाजन बना। पाप-पुण्य की भी ऐसी ही बात है। अपनी तरक्की के लिए, ज्ञान वृद्धि के लिए, आनन्द प्राप्त करने के उद्देश्य से ही समस्त मनुष्यों के सब काम होते हैं। इन तीन को छोड़कर चौथे उद्देश्य में कोई भी व्यक्ति कुछ काम नहीं करता। साधु, सन्त, त्यागी, परोपकारी या दुष्ट दुराचारी सभी कोई उपरोक्त तीन आकांक्षाओं में प्रेरित होकर अपने-अपने कार्य कर रहे हैं। इनमें से चतुर रसोइए की भांति जो लोग सावधानी और बुद्धिमानी से अपनी कार्य पद्धति निर्माण करते हैं वे पुण्यात्मा कहे जाते हैं और जो असावधानी एबं अदूरदर्शिता के साथ काम करते हैं उन्हें पापी कहा जाता है।

अमुक कर्म पाप है, अमुक पुण्य है, यह निर्णय करने में सृष्टि के आदि से ही सम्पूर्ण धर्म शास्त्र और तत्ववेत्ता लगे हुए हैं। अब तक पाप-पुण्य की परिभाषा करने में हजारों धर्म निर्मित हो चुके हैं परन्तु कोई सर्व सम्मत फैसला न हुआ। एक दल के विद्वान जिन कार्यों एवं विचारों को धर्म ठहराते हैं दूसरे उसे अधर्म कह देते हैं। इस प्रकार लोक में बुद्धि भ्रम तो बढ़ता है पर कुछ ठीक-ठीक निर्णय नहीं हो पाता। महाभारतकार का मत इस सम्बन्ध में हमें सबसे अधिक बुद्धि संगत प्रतीत हुआ है। भगवान व्यास ने लिखा है- ''परोपकाराय पुण्याय, पापाय पर पीडनम्” अर्थात् परोपकार पुण्य है और दूसरों को दुःख देना पाप है। दूसरों के साथ उपकार करना पुण्य इसलिए है कि इससे अपनी तीनों मूल वृत्तियों के बढ़ने में विशेष सहायता मिलती है। यह एक निश्चित नियम है कि जैसा व्यवहार हम दूसरों के साथ करते हैं वैसा ही व्यवहार दूसरे हमारे साथ भी करते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book