नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 2 प्रेमचन्द की कहानियाँ 2प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग
इंस्पेक्टर बोला, ''मेरे आदमी की जुबानी सिर्फ़ इतना ही मालूम हुआ कि वह कहता है कि जब देवेंद्र बाबू को मेरा नाम तक याद नहीं है और वह मेरे साथ कोई भलाई नहीं कर सकते तो मैं भी क्यूँ उनकी बेगार करने जाऊँ? '
मैं बैठ गया। दुनिया अँधेरी नज़र आने लगी। बदन में कंपन हो रहा था। कलेजा सन-सन करता था। मेरी यह हालत देखकर इंस्पेक्टर को भी कुछ तरस आ गया। बोला, ''शायद उसके नाम एक खत लिखने से काम निकल जाए। आप लिखना चाहें तो मैं थोड़ी देर ठहर सकता हूँ।''
मैं मेज पर से काग़ज़-क़लम उठाकर चिट्ठी लिखने बैठा। इंस्पेक्टर ने रोककर कहा, ''ऐसे नहीं। आप उसे कुछ सिखा दें तो मैं क्या करूँगा? मैं बोलता हूँ आप लिखिए। यह बेहतर होगा।''
मैंने लाचार होकर कहा, ''अच्छा, आप ही बोलिए। क्या लिखूँ?''
उसने कहा, ''हाँ, लिखिए। जनाब मुकर्रम बंदा तसलीम।''
''जी हाँ, लिख चुका। आगे बोलिए, आगे।''
वह बोलने लगा, ''मैंने इतनी देर में अच्छी तरह समझ लिया कि आप में एक्ट करने की अद्भुत क़ाबलियत मौजूद है। यह जानकर आज से अपने थिएटर में एक सौ रुपए माहवार तनख्वाह पर आपको मुलाजिम रखता हूँ। मैं जब तक थिएटर में रहूँगा, आपको मुलाजमत से अलग न करूँगा।''
मैं खैरियत से खामोश उसकी तरफ़ देखने लगा। जरा देर बाद जब मन काबू में हुआ तो मैंने उससे पूछा, ''जनाब, आप कौन हैं?''
उसने मुस्कुराकर कहा, ''क्यूँ! आपका गुलाम प्रान पदपान। वह जिसे अभी आपने सौ रुपया माहवार पर नौकर रखा है। अब इस पर दस्तख्त कर दीजिए।''
अब प्रान पद बाबू की कुशलता पर जरा भी शक न रहा। मैंने खुशी से उस पर दस्तख्त कर दिए और बोला, ''बेशक आप अपने फ़न के उस्ताद हैं।”
प्रान पद मुस्कुरा कर बोला, ''अच्छा, तो आदाब-अर्ज़ करता हूँ। गुलाम पर कृपा-दृष्टि रखिएगा।''
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