नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 2 प्रेमचन्द की कहानियाँ 2प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग
रसिक– मैं उसकी चुप्पी देखकर पहले ही से डर रहा था कि यह कोई पल्ले सिरे का घाघ है।
मस्त– मान गया इसकी खोपड़ी को। यह चपत उम्र भर न भूलेगी।
गुरुप्रसाद इस आलोचना में शरीक न हुए। वह इस तरह सिर झुकाए चले जा रहे थे, मानो अभी तक वह स्थिति को समझ ही न पाए हों !
3. अभिलाषा
कल पड़ोस में बड़ी हलचल मची। एक पानवाला अपनी स्त्री को मार रहा था। वह बेचारी बैठी रो रही थी, पर उस निर्दयी को उस पर लेशमात्र भी दया न आती थी। आखिर स्त्री को भी क्रोध आ गया। उसने खड़े होकर कहा- बस, अब मारोगे, तो ठीक न होगा। आज से मेरा तुझसे कोई संबंध नहीं। मैं भीख माँगूँगी, पर तेरे घर न आऊँगी। यह कहकर उसने अपनी एक पुरानी साड़ी उठाई और घर से निकल पड़ी।
पुरुष काठ के उल्लू की तरह खड़ा देखता रहा। स्त्री कुछ दूर चलकर फिर लौटी और दूकान की संदूकची खोलकर कुछ पैसे निकाले। शायद अभी तक उसे ममता थी; पर उस निर्दय ने तुरन्त उसका हाथ पकड़कर पैसे छीन लिये। हाय री हृदयहीनता ! अबला स्त्री के प्रति पुरुष का यह अत्याचार ! एक दिन इसी स्त्री पर उसने प्राण दिये होंगे, उसका मुँह जोहता रहा होगा; पर आज इतना निष्ठुर हो गया है, मानो कभी की जान-पहचान ही नहीं। स्त्री ने पैसे रख दिये और बिना कहे-सुने चली गई। कौन जाने कहाँ ! मैं अपने कमरे की खिड़की से घंटों देखती रही कि शायद वह फिर लौटे या शायद पानवाला ही उसे मनाने जाय; पर दो में से एक बात भी न हुई। आज मुझे स्त्री की सच्ची दशा का पहली बार ज्ञान हुआ।
यह दूकान दोनों की थी। पुरुष तो मटरगश्ती किया करता था, स्त्री रात-दिन बैठी सती होती थी। दस-ग्यारह बजे रात तक मैं उसे दूकान पर बैठी देखती थी। प्रात:काल नींद खुलती, तब भी उसे बैठी पाती। नोच-खसोट, काट-कपट जितना पुरुष करता था, उससे कुछ अधिक ही स्त्री करती थी। पर पुरुष सबकुछ है, स्त्री कुछ नहीं ! पुरुष जब चाहे उसे निकाल बाहर कर सकता है !
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