नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 2 प्रेमचन्द की कहानियाँ 2प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग
यह पद मेरे मर्मस्थल को तीर की भाँति छेदता हुआ कहाँ चला गया, नहीं जानती। मेरे रोयें खड़े हो गये। आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। ऐसा मालूम हुआ, जैसे कोई मेरे प्रियतम को मेरे ह्रदय से निकाले लिये जाता है। मैं जोर से चिल्ला पड़ी। उसी समय पतिदेव की नींद टूट गई।
वह मेरे पास आकर बोले¸ 'क्या अभी तुम चिल्लाई थीं? अरे ! तुम रो रही हो? क्या बात है? कोई स्वप्न तो नहीं देखा?'
मैंने सिसकते हुए कहा, 'रोऊँ न, तो क्या हँसूँ?'
स्वामी ने मेरा हाथ पकड़कर कहा, 'क्यों, रोने का कोई कारण है, या यों ही रोना चाहती हो?'
'क्या मेरे रोने का कारण तुम नहीं जानते?'
'मैं तुम्हारे दिल की बात कैसे जान सकता हूँ?'
'तुमने जानने की चेष्टा कभी की है?'
'मुझे इसका ज्ञान-गुमान भी न था कि तुम्हारे रोने का कोई कारण हो सकता है।'
'तुमने तो बहुत कुछ पढ़ा है, क्या तुम भी ऐसी बात कह सकते हो?'
स्वामी ने विस्मय में पड़कर कहा, 'तुम तो पहेलियाँ बुझवाती हो?'
'क्यों, क्या तुम कभी नहीं रोते?'
'मैं क्यों रोने लगा।'
'तुम्हें अब कोई अभिलाषा नहीं है?'
'मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा पूरी हो गई। अब मैं और कुछ नहीं चाहता।'
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