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प्रेमचन्द की कहानियाँ 2

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9763

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग


सुनिए, मैं कौन हूँ? मैं वह शख्स हूँ जिसने इमराज़ इंसानी को पर्दे दुनियाँ से ग़ायब कर देने का बीड़ा उठाया है। जिसने इश्तिहारबाज़, जौ फ़रोश गंदुमनुमा बने हुए हकीमों को बेख व बुन से खोदकर दुनियाँ को पाक कर देने का अज्ज विल-जज्म कर लिया है। मैं वह हैरतअगेज़ इंसान ज़ईफुल बियान हूँ जो नाशाद को दिलशाद, नामुराद को बामुराद, भगोड़े को दिलेर, गीदड़ को शेर बनाता हूँ और यह किसी जादू से नहीं, मंत्र से नहीं, यह मेरी ईजाद करदा ‘अमृतबिंदु’ के अदना करश में हैं। अमृतबिंदु क्या है, इसे कुछ मैं ही जानता हूँ। महर्षि अगस्त ने धनवंतरि के कान में इसका नुस्सा बतलाया था। जिस वक्त आप वी.पी.पार्सल खोलेंगे, आप पर उसकी हकीक़त रौशन हो जाएगी। यह आबे-हयात है। यह मर्दानगी का जौहर, फ़रज़ानगी का अक्सीर, अक्ल का मुम्बा और जेहन का सीक़ल है। अगर वर्षों की मुशायरावाजी ने भी आपको शायर नहीं बनाया, अगर शाबाना रोज के रटंत पर भी आप इम्तिहान में कामयाब नहीं हो सके, अगर दलालों की खुशामद और मुवक्किलों की नाज़वर्दारी के बावजूद भी आप अहाते अदालत में भूखे कुत्ते की तरह चक्कर लगाते फिरते हैं, अगर आप गला फाड़-फाड़ चीखने और मेज पर हाथ-पैर पटकने पर भी अपनी तकरीर से कोई असर पैदा नहीं कर सकते तो आप अमृतबिंदु का इस्तेमाल कीजिए। इसका सबसे बड़ा फ़ायदा जो पहले ही दिन मालूम हो जाएगा वह यह है कि आपकी आँखें खुल जाएँगी और आप फिर कभी इश्तिहारबाज हकीमों के दामफ़रेब में न फँसेंगे।’’

वैद्यजी इस विज्ञापन को समाप्त कर उच्च स्वर से पढ़ रहे थे। उनके नेत्रों में उचित अभिमान और आशा झलक रही थी कि इतने में देवदत्त ने बाहर से आवाज़ दी। वैद्यजी बहुत खुश हुर। रात के समय उनकी फीस दुगुनी थी। लालटेन लिए हुए बाहर निकले तो देवदत्त रोता हुआ उनके पैरों में लिपट गया और बोला- ‘‘वैद्यजी, इस समय मुझ पर दया कीजिए। गिरिजा अब कोई सायत की पाहुनी है। अब आप ही उसे बचा सकते हैं। यों तो मेरे भाग्य मैं जो लिखा है वही होगा, किंतु इस समय तनिक चलकर आप देख लें तो मेरे दिल की दाह मिट जाएगी। मुझे धैर्य हो जाएगा कि उसके लिए मुझसे जो कुछ हो सकता था, मैंने किया। परमात्मा जानता है कि मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आपकी कुछ सेवा कर सकूँ किंतु जब तक जीऊँगा आपका यश गाऊँगा। और आपके इशारों का गुलाम बना रहूँगा। ‘‘

हकीमजी को पहले कुछ तरस आया, किंतु यह जुगनू की चमक थी, जो शीघ्र ही स्वार्थ के विशान अंधकार में विलीन हो गई।  

वही अमावस्या की रात्रि थी। वृक्षों पर भी सन्नाटा छा गया था। जीतनेवाले अपने बच्चों को नींद से जगा-जगाकर इनाम देते थे। हारनेवाले अपनी रुष्ट और क्रोधित स्त्रियों से क्षमा के लिए प्रार्थना कर रहे थे। इतने में घंटों के लगातार शब्द, वायु और अंधकार को चीरते हुए कान में आने लगे। उनकी सुहावनी ध्वनि इस निस्तब्ध अवस्था में अत्यंत भली प्रतीत होती थी। यह शब्द समीप होते गए और अंत में पंडित देवदत्त के समीप आकर उसके खंडहरों में डूब गए। पंडितजी उस समय निराशा के अथाह समुद्र में गोते खा रहे थे। शोक में इस योग्य भी नहीं थे कि प्राणों से भी अधिक प्यारी गिरिजा की दवा-दरपन कर सकें। क्या करें? इस निष्ठुर वैद्य को यहाँ कैसे लावें? ज़ालिम, मैं सारी उमर तेरी गुलामी करता। तेरे इश्तहार छापता। तेरी दवाइयाँ कूटता। आज पंडितजी को यह ह्रासमय ज्ञान हुआ है कि सत्तर लाख की चिट्ठी-पत्रियाँ इतनी कौड़ियों के मोल की भी नहीं। पैतृक प्रतिष्ठा का अहंकार अब आँखों से दूर हो गया। उन्होंने उस मखमली थैले को संदूक से बाहर निकाला और उन चिट्ठी-पत्रियों को जो बाप-दादे की कमाई की शेषांश थीं, और जिनकी, प्रतिष्ठा की भाँति रक्षा की जाती थी, वे एक-एक करके दीया को अर्पण करने लगे। जिस तरह सुख और आनंद से पालित शरीर चिता की भेंट हो जाता है, उसी प्रकार यह कागजी पुतलियाँ भी उस प्रज्वलित दीया के धधकते हुए मुँह की ग्रास बनती थीं। इतने में किसी ने बाहर से पंडितजी को पुकारा। उन्होंने चौंक कर सिर उठाया। वे नींद से जागे, अँधेरे में टटोलते हुए दरवाजे तक आए तो देखा कि कई आदमी हाथ में मशाल लिए हुए खड़े है और एक हाथी अपनी सूँड से उन एरंड के वृक्षों को उखाड़ रहा है, जो द्वार पर द्वारपालों की भाँति खड़े थे। हाथी पर एक सुंदर युवक बैठा हुआ है जिसके सिर पर केसरिया रंग की रेशमी पाग है। माथे पर अर्द्धचंद्राकार चंदन, भाले की तरह तनी हुई नोकदार मूँछें, मुखारविंद से प्रभाव और प्रकाश टपकता हुआ, कोई सरदार मालूम पड़ता था। उसका कलीदार अँगरखा और चुनावदार पैजामा, कमर में लटकती हुई तलवार, और गर्दन में सुनहरे कंठे और जंजीर उसके सजीले शरीर पर अत्यंत शोभा पा रहे थे। पंडितजी को देखते ही उसने रकाब पर पैर रक्सा और नीचे उतर कर उनकी वंदना की। उसके इस विनीत भाव से कुछ लज्जित होकर पंडितजी बोले- ‘‘आपका आगमन कहाँ से हुआ? ‘‘

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