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प्रेमचन्द की कहानियाँ 3

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9764

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसरा भाग


सभा की कार्रवाई शुरू हुई। प्रधान महोदय की वक्तृता के पश्चात् प्रस्ताव पेश होने लगे और उनके समर्थन के लिए वक्तृताएं होने लगीं; किन्तु महिलाएं उनकी वक्तृताएं भूल गयीं, या उन पर सभा का रोब ऐसा छा गया कि उनकी वक्तृता-शक्ति लोप हो गयी। वे कुछ टूटे-फूटे जुमले बोलकर बैठने लगीं। सभा का रंग बिगड़ने लगा। कई लेडियाँ बड़ी शान से प्लेटफार्म पर आयीं; किन्तु दो-तीन शब्दों से अधिक न बोल सकीं। नवयुवकों को मजाक उड़ाने का अवसर मिला। कहकहे पड़ने लगे; तालियाँ बजने लगीं। श्रृद्धा उनकी यह दुर्जनता देखकर तिलमिला उठी, उसका अंग-प्रत्यंग फड़कने लगा। प्लेटफार्म पर जाकर वह कुछ इस शान से बोली, कि सभा पर आतंक छा गया। कोलाहल शांत हो गया। लोग टकटकी बाँधकर उसे देखने लगे। श्रृद्धा स्वर्गीय बाला की भाँति धरावाहिक रूप में बोल रही थी। उसके प्रत्येक शब्द से नवीनता, सजीवता और दृढ़ता प्रतीत होती थी। उसके नवयौवन की सुरभि भी चारों ओर फैलकर सभा मंडप को अवाक् कर रही थी। सभा समाप्त हुई। लोग टीका-टिप्पणी करने लगे।

एक ने पूछा, 'यह स्त्री कौन थी भई !'

दूसरे ने उत्तर दिया- 'उसी कोकिला रंडी की लड़की।'

तीसरे व्यक्ति ने कहा, 'तभी यह आवाज और सफाई है। तभी तो जादू है। जादू है जनाब मुजस्सिम जादू ! क्यों न हो, माँ भी तो सितम ढाती थी। जब से उसने अपना पेशा छोड़ा, शहर बे-जान हो गया। अब मालूम होता है कि यह अपनी माँ की जगह लेगी।'

इस पर एक खद्दरधारी काला नवयुवक बोला, 'क्या खूब कदरदानी फरमाई है जनाब ने, वाह !'

उसी व्यक्ति ने उत्तर दिया, 'आपको बुरा क्यों लगा ? क्या कुछ सहृय-गाँठ तो नहीं है?'

काले नवयुवक ने कुछ तेज होकर कहा, 'आपको ऐसी बातें मुँह से निकालते लज्जा भी नहीं आती।'

दूसरे व्यक्ति ने कहा, 'लज्जा की कौन बात है जनाब? वेश्या की लड़की अगर वेश्या हो, तो आश्चर्य की क्या बात है?'

नवयुवक ने घृणापूर्ण स्वर में कहा, 'ठीक होगा, आप जैसे बुद्धिमान व्यक्तियों की समझ में ! जिस रमणी के मुख से ऐसे विचार निकल सकते हैं, वह देवी है, रूप को बेचनेवाली नहीं।'

श्रृद्धा उसी समय सभा से जा रही थी। यह अंतिम शब्द उसके कानों में पड़ गये। वह विस्मित और पुलकित होकर वहीं ठिठक गयी। काले नवयुवक की ओर कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से निहारा और फिर बड़ी तेजी से आगे बढ़ गयी; लेकिन रास्ते-भर उसके कानों में उन्हीं शब्दों की प्रतिध्वनि गूँजती रही। अब तक श्रृद्धा की प्रशंसा करनेवाली, उसे उत्साहित करनेवाली केवल उसी की माँ कोकिला थी और चारों ओर वही उपेक्षा थी; वही तिरस्कार ! आज एक अपरिचित, काले किन्तु गौर हृदयवाले खद्दरधारी नवयुवक व्यक्ति के मुख का चित्र बराबर उसकी आँखों के सामने नाच रहा था। मन में प्रश्न उठा वह कौन है? क्या फिर कभी उसके दर्शन होंगे?

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