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प्रेमचन्द की कहानियाँ 5

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9766

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग


यह कहते-कहते तीनों आदमी चंचलकुँवर के गिर्द खड़े हो गए। एक ने बेताब होकर उसके दोनों हाथ पकड़ लिए। दूसरे ने उसकी कमर में हाथ डाल दिया और तीसरे साहब ने उसके सुगंधित केशों का चुंबन लेना शुरू किया। चंचलकुँवर लजाती थीं, त्यौरियाँ बदलती थीं, कोसती थीं, हँसती थीं, तड़फड़ाती थीं। उसकी गर्म-गर्म साँस बारी-बारी से उन तीनों आदमियों के मुँह पर वह काम कर रही थी जो ठंडी हवा नशा करती है। वह उसके बीच में निकलने के ल्रिए जोर कर रही थी, लेकिन कुछ न बस चलता था। एक मायावी प्रेमिका के साथ के लिए ऐसे मैत्रीपूर्ण संघर्ष का नजारा किसी ने कम देखा होगा। मगर कमरे में रखे हुए आदमकद शीशे में कुछ और ही दृश्य नजर आता था। वहाँ तीन वयोवृद्ध और खस्ताहाल बूढ़े एक झुकी हुई कमर, विकृत और झुर्रीदार बुढ़िया से आलिंगनबद्ध होने के लिए गले में हाथ डालना थे। लेकिन वे नौजवान थे। उनकी मस्ती इसका सुबूत थी। चंचलकुँवर की भाव-भंगिमा और परहेज़ से बेखुद होकर तीनों व्यक्तियों ने कुपित दृष्टि डालनी शुरू की। हसीन माशूका से चिपटे हुए वे एक-दूसरे पर पिल पड़े। हाथापाई और धौल-धप्पा शुरू हुआ.। इस झमेले में मेज को ठोकर लगी और वह उलट गई। शीशे का घड़ा चूर-चूर हो गया और वह आबो-ज़िंदगी एक चमकीली धार की सूरत में फर्श पर बह निकला। एक अधमरी तितली जमीन पर पड़ी सिसक रही थी। उसके पर इस धार से तर हो गए। वह फुर्र से उड़कर डॉक्टर घोष की टोपी पर जा बैठी। डॉक्टर घोष बोले- ''बस-बस, यारो! बस। चंचलकुँवर, बस। अब बहुत हुआ। मुझे यह हंगामा क़तई पसंद नहीं।''

वे सब-के-सब खामोश हो गए। उन्हें लरज़ा-सा आ गया। उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि बहुत वृद्ध ज़माना हमें जवानी की इस हरियाली से फिर वृद्धावस्था की अँधेरी घाटी की तरफ़ खींचे लिया जाता है। उन्होंने डॉक्टर घोष की तरफ़ देखा। वह उस पचास साला फूल को लिए यथापूर्व बैठे हुए थे, जिसे उन्होंने घड़े के टुकड़ों में से निकाल लिया था। उनके हाथों का इशारा पाते ही चारों उमंग की लहर के मतवाले अपनी-अपनी जगहों पर आ बैठे, हालाँकि वे जवान थे, पर इस मूर्खतापूर्ण उन्माद ने उन्हें बेदम कर दिया था।

डॉक्टर घोष ने फूल को संध्या की लालिमा की रोशनी में देखकर कहा- ''अफ़सोस, यह फूल फिर मुरझाया जाता है।''

यह बिलकुल सही था। इन लोगों के देखते-देखते फूल ऐसा खुश्क़ और चुर-मुरा हो गया, जैसा घड़े में डालते वक्त था। डॉक्टर ने उसकी पंखुड़ियों पर लगी हुई पानी की बूँदों को हिलाकर गिरा दिया और उसे अपने सूखे हुए होठों से लगाकर बोले- ''मेरे लिए यह अब भी ताज़ा और शगुफ्ता है।''

डॉक्टर साहब के मुँह से यह शब्द निकल रहे थे कि तितली फड़फड़ाई और उनके सिर पर से जमीन पर गिर पड़ी। डॉक्टर साहब के दोस्तों के जिस्म में फिर कम्पन हुआ। एक अजीब किस्म की शीतलता मालूम नहीं उनके जिस्म या दिल पर डोलती चली आती थी। वे एक-दूसरे की तरफ़ ताक रहे थे। उन्हें ख्याल होता था कि हर एक लम्हा उनके यौवन-पुष्प को तोड़कर उसकी जगह एक-एक दाग छोड़ता चला जाता था। क्या यह बिलकुल दृष्टिभ्रम था? क्या आयु-सीमा की तब्दीलियाँ इतने मुख्तसर लम्हों में समेट दी गई थीं? और वे सब-के-सब चार बूढ़े थे जो अपने पुराने दोस्त डॉक्टर घोष के साथ बैठे हुए थे। इन लोगों ने मायूसाना लहजे में कहा- ''क्या हम फिर इतनी जल्दी बूढ़े हो गए?''

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