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प्रेमचन्द की कहानियाँ 5

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9766

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग


सुरेश विद्याप्रेमी थे, हिंदुस्तान में ऊँची शिक्षा समाप्त करके वह योरप चले गये, और सब लोगों की शंकाओं के विपरीत वहाँ से आर्य-सभ्यता के परम भक्त  बनकर लौटे थे। वहाँ के जड़वाद, कृत्रिम भोग-लिप्सा और अमानुषिक मदांधता ने उनकी आँखें खोल दीं थीं। पहले वह घर वालों के बहुत जोर देने पर भी विवाह करने को राजी न हुए। लड़की से पूर्व परिचय हुए बिना प्रणय नहीं कर सकते थे। पर योरप से लौटने पर उनके वैवाहिक विचारों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया। उन्होंने उसी पहले की कन्या से, बिना उसके आचार-विचार जाने हुए विवाह कर लिया। अब वह विवाह को प्रेम का बंधन नहीं, धर्म का बंधन समझते थे। उसी सौभाग्यवती वधू को देखने के लिए आज शीतला, अपनी सास के साथ, सुरेश के घर गयी थी। उसी के आभूषणों की छटा देखकर वह मर्माहत-सी हो गई है। विमल ने व्यथित होकर कहा– तो माता-पिता से कहा होता, सुरेश से ब्याह कर देते। वह तुम्हें गहनों से लाद सकते थे।

शीतला– तो गाली क्यों देते हो?

विमल– गाली नहीं देता, बात कहता हूँ। तुम जैसी सुंदरी को उन्होंने नाहक मेरे साथ ब्याहा।
शीतला– लजाते तो नहीं, उलटे और ताने देते हो !

विमल– भाग्य मेरे वश में नहीं है। इतना पढ़ा भी नहीं हूँ कि कोई बड़ी नौकरी करके रुपये कमाऊँ।

शीतला– यह क्यों नहीं कहते कि प्रेम ही नहीं है। प्रेम हो, तो कंचन बरसने लगे।

विमल– तुम्हें गहनों से बहुत प्रेम है?

शीतला– सभी को होता है। मुझे भी है।

विमल– अपने को अभागिनी समझती हो?

शीतला– हूँ ही, समझना कैसा? नहीं तो क्या दूसरे को देखकर तरसना पड़ता?

विमल– गहने बनवा दूँ, तो अपने को भाग्यवती समझने लगोगी?

शीतला– (चिढ़कर) तुम तो इस तरह पूछ रहे हो, जैसे सुनार दरवाजे पर बैठा है।

विमल– नहीं, सच कहता हूँ, बनवा दूँगा। हाँ, कुछ दिन सबर करना पड़ेगा।

समर्थ पुरुषों को बात लग जाती है, तो वे प्राण ले लेते हैं। सामर्थ्यहीन पुरुष अपनी ही जान पर खेल जाता है। विमलसिंह ने घर से निकल जाने की ठानी। निश्चय किया, या तो उसे गहनें से लाद दूँगा, या वैधव्य-शोक से; या तो आभूषण ही पहनेगी, या सेंदुर को भी तरसेगी।

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