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प्रेमचन्द की कहानियाँ 5

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9766

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग


मजदूरों में यों वाद-विवाद होता ही रहा, विमल आकर अपनी कोठरी में लेट गया। वह सोचने लगा–अब क्या करूँ? जब सुरेश-जैसे सज्जन की नीयत बदल गई, तो अब किसका भरोसा करूँ? नहीं, अब बिना घर गये, काम न चलेगा। कुछ दिन और न गया, तो फिर कहीं का न होऊँगा। दो साल और रह जाता, तो पास में पूरे 5000 रु. हो जाते। शीतला की इच्छा कुछ तो पूरी हो जाती। अभी तो सब मिलाकर 3000 रु. ही होंगे। इतने में उसकी अभिलाषा न पूरी होगी। खैर, अभी चलूँ। छह महीने में लौट आऊँगा। अपनी जायदाद तो बच जाएगी। नहीं, छह महीने रहने का क्या काम है? आने जाने में एक महीना लग जाएगा। घर में पंद्रह दिन से ज्यादा न रहूँगा। वहाँ कौन पूछता है, जाऊँ या रहूँ, मरूँ या जिऊँ; वहाँ तो गहनों से प्रेम है।

इस तरह मन में निश्चय करके वह तीसरे ही दिन रंगून से चल पड़ा।

संसार कहता है कि गुण के सामने रूप की कोई हस्ती नहीं। हमारे नीति-शास्त्र के आचार्यों का भी यही कथन है। पर वास्तव में यह कितना भ्रम-मूलक है! कुँवर सुरेशसिंह की नववधू मंगला कुमारी गृह-कार्य में निपुण, पति के इशारे पर प्राण देनेवाली, अत्यंत विचारशील, मधुर-भाषिणी और धर्म-भीरु थी, पर सौन्दर्य-विहीन होने के कारण पति की आँखों में काँटे के समान खटकती थी। पर सुरेशसिंह बात-बात पर उस पर झुँझलाते, पर घड़ी-भर में पश्चाताप के वशीभूत होकर उससे क्षमा माँगते; किन्तु दूसरे ही दिन फिर वही कुत्सित व्यापार शुरू हो जाता। विपत्ति यह थी कि उनके आचरण अन्य रईसों की भाँति भ्रष्ट न थे। वह दाम्पत्य-जीवन ही में आनन्द, सुख, शान्ति, विश्वास प्रायः सभी ऐहिक और पारमार्थिक उद्देश्य पूरा करना चाहते थे, और दाम्पत्य-सुख से वंचित होकर उन्हें अपना समस्त जीवन नीरस, स्वादहीन और कुंठित जान पड़ता था। फल यह हुआ कि मंगला को अपने ऊपर विश्वास न रहा। वह अपने मन से कोई काम करते हुए डरती कि स्वामी नाराज होंगे। स्वामी को खुश रखने के लिए अपनी भूलों को छिपाती, बहाने करती, झूठ बोलती। नौकरों को अपराध लगाकर आत्मरक्षा करना चाहती थी। पति को प्रसन्न रखने के लिए उसने अपने गुणों की, अपनी आत्मा की अवहेलना की; पर उठने के बदले वह पति की नजरों से गिरती ही गई। वह नित्य नए श्रृंगार करती; पर लक्ष्य से दूर होती जाती। पति की एक मधुर मुस्कान के लिए उनके अधरों के एक मीठे शब्द के लिए, उसका प्यासा हृदय तड़प-तड़पकर रह जाता। लावण्य-विहीन स्त्री वह भिक्षुक नहीं है, जो चंगुल-भर आटे से संतुष्ट हो जाय। वह भी पति का सम्पूर्ण अखण्ड प्रेम चाहती है, और कदाचित् सुंदरियों से अधिक; क्योंकि वह इसके लिए असाधारण प्रयत्न और अनुष्ठान करती है। मंगला इस प्रयत्न में निष्फल होकर और भी संतप्त होती थी।

धीरे-धीरे पति पर से उसकी श्रद्धा उठने लगी। उसने तर्क किया कि ऐसे क्रूर, हृदय-शून्य, कल्पना-हीन मनुष्य से मैं भी उसी का-सा व्यवहार करूँगी। जो पुरुष केवल रूप का भक्त है, वह प्रेम-भक्ति के योग्य नहीं। इस प्रत्याघात ने समस्या और जटिल कर दी।

मगर मंगला को केवल अपनी रूपहीनता ही का रोना न था, शीतला का अनुपम रूप-लावण्य भी उसकी कामनाओं का बाधक था, बल्कि यही उसकी आशालताओं पर पड़नेवाला तुषार था। मंगला सुंदरी न सही, पर पति पर जान देती थी। जो अपने को चाहे, उससे हम विमुख नहीं हो सकते; प्रेम की शक्ति अपार है। पर शीतला की मूर्ति सुरेश के हृदय-द्वार पर बैठी हुई मंगला को अंदर न जाने देती थी, चाहे वह कितना ही वेश बदलकर आवे। सुरेश इस मूर्ति को हटाने की चेष्ठा करते थे, उसे बलात् निकाल देना चाहते थे; किन्तु सौंदर्य का आधिपत्य धन के आधिपत्य से कम दुर्निवार नहीं होता। जिस दिन शीतला इस घर में मंगला का मुँह देखने आयी थी, उसी दिन सुरेश की आँखों ने उसकी मनोहर छवि की झलक देख ली थी। वह एक झलक मानो एक क्षणिक क्रिया थी, जिसने एक ही धावे में समस्त हृदय-राज्य को जीत लिया–उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया।

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