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प्रेमचन्द की कहानियाँ 5

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9766

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग


मंगला– ईश्वर के दरबार में। पूछूँगी कि तुमने मुझे सुंदरता क्यों नहीं दी? बदसूरत क्यों बनाया? बहन, स्त्री के लिए इससे दुर्भाग्य की बात नहीं कि वह रूपहीन हो। शायद पुरबले जनम की पिशाचिनियाँ ही बदसूरत औरतें होती हैं। रूप से प्रेम मिलता है, और प्रेम से दुर्लभ कोई वस्तु नहीं।

यह कहकर मंगला उठ खड़ी हुई। शीतला ने उसे रोका नहीं; सोचा– इसे खिलाऊँगी क्या, आज तो चूल्हा जलने की आशा नहीं।

उसके जाने के बाद वह बहुत देर बैठी सोचती रही– मैं कैसी अभागिन हूँ। जिस प्रेम को न पाकर वह बेचारी जीवन को त्याग रही है, उसी प्रेम को मैंने पाँव से ठुकरा दिया। इसे जेवर की क्या कमी थी? क्या ये सारे जड़ाऊ जेवर इसे सुखी रख सके? इसने उन्हें पाँव से ठुकरा दिया। इन्हीं आभूषणों के लिए मैंने अपना सर्वस्व खो दिया। हा! न जाने वह (विमलसिंह) कहाँ हैं, किस दिशा में हैं?

अपनी लालसा को, तृष्णा को, वह कितनी ही बार धिक्कार चुकी थी। मंगला की दशा देखकर आज उसे आभूषणों से घृणा हो गई।

विमल को घर छोड़े दो साल हो गए। शीतला को अब उनके बारे में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। आठो पहर उसके चित्त में ग्लानि और क्षोभ की आग सुलगती रहती!

देहात के छोटे-मोटे जमींदारों का काम डाँट-डपट, छीन-झपट ही से चला करता है। विमल की खेती बेगार में होती थी। उसके जाने के बाद सारे खेत परती रह गए। कोई जोतने वाला न मिला। इस खयाल से साझे पर भी किसी ने न जोता कि बीच में कहीं विमल सिंह आ गए, तो साझेदार को अंगूठा दिखा देंगे। असामियों ने लगान न दिया। शीलता ने महाजन से रुपये उधार लेकर काम चलाया। दूसरे वर्ष भी यही कैफियत रही। अबकी महाजन ने भी रुपये न दिये। शीतला के गहनों के सिर गई। दूसरा साल समाप्त होते-होते घर की सब लेई-पूँजी निकल गई। फाके होने लगे। बूढ़ी सास, छोटा देवर, ननद और आप, चार प्राणियों का खर्च था। नात-हित भी आते रहते थे। उस पर यह और मुसीबत हुई कि मायके में एक फौजदारी हो गई। पिता और बड़े भाई उसमें फँस गए। दो छोटे भाई, एक बहन और माता, चार प्राणी और सिर पर आ डटे। गाड़ी पहले ही मुश्किल से चलती थी, अब जमीन में धँस गई।

प्रातःकाल से ही कलह आरंभ हो जाता। समधिन समधिन से, साले बहनोई से गुथ जाते। कभी तो अन्न के अभाव से भोजन ही न बनता; कभी भोजन बनने पर भी गाली-गलौज के कारण खाने की नौबत न आती। लड़के दूसरे के खेतों में जाकर गन्ने और मटर खाते; बूढ़ियाँ दूसरों के घर जाकर दुखड़ा रोतीं और ठकुर-सोहाती कहतीं ! पुरुष की अनुपस्थिति में स्त्री के मायके वालों का प्राधान्य हो जाता है। इस संग्राम में प्रायः विजय-पताका मायके वालों के हाथ रहती है। किसी भाँति घर में नाज आ जाता तो उसे पीसे कौन? शीतला की माँ कहती, चार दिन के लिए आयी हूँ तो चक्की चलाऊँ? सास कहती, खाने की बेर तो बिल्ली की तरह लपकेंगी, पीसते क्यों जान निकलती है? विवश होकर शीतला को अकेले पीसना पड़ता। भोजन के समय वह महाभारत मचता कि पड़ोस वाले तंग आ आते। शीतला कभी माँ के पैरों पड़ती, कभी सास के चरण पकड़ती; लेकिन दोनों ही उसे झिड़क देतीं। माँ कहती, तूने यहाँ बुलाकर हमारा पानी उतार लिया। सास कहती, मेरी छाती पर सौत लाकर बैठा दी, अब बातें बनाती है। इस घोर विवाद में शीतला अपना विरह-शोक भूल गई। सारी अमंगल शंकाएँ इस विरोधाग्नि में शान्त हो गईं। बस, यही चिंता थी कि इस दशा से छुटकारा कैसे हो? माँ और सास, दोनों ही का यमराज के सिवा और कहीं ठिकाना न था; पर यमराज उनका स्वागत करने के लिए बहुत उत्सुक नहीं जान पड़ते थे। सैकड़ों उपाय सोचती; पर उस पथिक की भाँति, जो दिन-भर चलकर भी अपने द्वार ही पर खड़ा हो, उसकी सोचने की शक्ति निश्चल हो गई थी। चारों तरफ निगाहें दौड़ाती कि कहीं कोई शरण का स्थान है? पर कहीं निगाह न जमती।

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