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प्रेमचन्द की कहानियाँ 6

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9767

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छटा भाग


अम्माजी ने किवाड़ बन्द करते हुए कहा- तुम अँधेरे में कहाँ जाओगे, अभी तो खड़ा था। मैंने कहा, यही रहना; मैं आती हूँ। तब तक न जाने कहाँ खिसक गया। बड़ा संकोची है। आटा तो लेता ही न था। मैंने जबरदस्ती उसके अँगोछे में बाँध दिया। मुझे तो बेचारे पर बड़ी दया आती है। न जाने बेचारे के घर में कुछ खाने को है या नहीं। रुपये लायी थी कि दे दूँगी; पर न जाने कहाँ चला गया। अब तो मुझे भी साहस हुआ। मैंने अपनी चोरी की पूरी कथा कह डाली। बच्चों के साथ समझदार बच्चे बनकर माँ-बाप उन पर जितना असर डाल सकते हैं, जितनी शिक्षा दे सकते हैं, उतना बूढ़े बनकर नहीं।

अम्माँजी ने कहा- तुमने मुझसे पूछ क्यों न लिया? क्या मैं कजाकी को थोड़ा-सा आटा न दे देती?

मैंने इसका कोई उत्तर न दिया। दिल में कहा, इस वक्त तुम्हें कजाकी पर दया आ रही है, जो चाहो दे डालो; लेकिन मैं माँगता तो मारने दौड़ती। हाँ, यह सोचकर चित्त प्रसन्न हुआ कि अब कजाकी भूखों न मरेगा। अम्माँ जी उसे रोज खाने को देंगी, और वह मुझे रोज कंधे पर बिठाकर सैर कराएगा।

दूसरे दिन मैं दिन-भर मुन्नू के साथ खेलता रहा। शाम को सड़क पर जा कर खड़ा हो गया। मगर अँधेरा हो गया था कजाकी का कहीं पता नहीं, दिये जल गए, रास्ते में सन्नाटा छा गया; पर कजाकी न आया।

मैं रोता हुआ घर आया। अम्माँ जी ने पूछा- क्यों रोते हो बेटा?  क्या कजाकी नहीं आया?

मैं और जोर से रोने लगा। अम्माँ जी ने मुझे छाती से लगा लिया। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि उनका कंठ भी गद्गद हो गया है।

उन्होंने कहा- बेटा चुप हो जाओ। मैं कल किसी हरकारे को भेजकर कजाकी को बुलवाऊँगी।
मैं रोते-ही-रोते सो गया। सबेरे ज्यों ही आँख खुली, मैंने अम्माँजी  से कहा- कजाकी को बुलवा दो।

अम्माँ ने कहा- आदमी गया है बेटा; कजाकी आता होगा। मैं खुश हो गया खेलने लगा। मुझे मालूम था अम्मा जी जो बात कहती हैं उसे पूरा जरूर करती हैं। उन्होंने सबेरे ही हरकारे को भेज दिया था। दस बजे मैं मुन्नू को लिए घर आया, तो मालूम हुआ कि कजाकी अपने घर पर नहीं मिला। वह रात को भी घर न गया था। उसकी स्त्री रो रही थी कि- न-जाने कहाँ चले गए। उसे भय था कि वह कहीं भाग गया है।

बालकों का हृदय कितना कोमल होता है, इसका अनुमान दूसरा कर नहीं सकता। उनमें अपने भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं होते। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं होता कि कौन-सी बात उन्हें विकल कर रही है, कौन-सा काँटा उनके हृदय में खटक रहा है, क्यों बार-बार उन्हें रोना आता है, क्यों वे मन मारे बैठे रहते हैं, खेलने में जी नहीं लगता। मेरी भी वही दशा थी। कभी घर में आता, कभी बाहर जाता, कभी सड़क पर जा पहुँचता। आँखें कजाकी को ढूँढ़ रही  थीं। वह कहाँ चला गया? कहीं भाग तो नहीं गया?

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