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प्रेमचन्द की कहानियाँ 6

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9767

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छटा भाग


मैंने कहा- हाँ, हाँ मैंने उस दिन तुमसे जो कहा था अम्माँजी।

अम्माँ- घर में कुछ खाने-पीने को है?

औरत- हाँ बहूजी तुम्हारे आशीर्वाद से खाने-पीने का दुख नहीं है। आज सबेरे उठे और तालाब की ओर चले गए। बहुत कहती रही, बाहर मत जाओ हवा लग जाएगी मगर न माने। मारे कमजोरी के पैर काँपने लगते हैं। मगर तालाब में घुसकर ये कमलगट्टे तोड़ लाए। तब मुझसे कहा, ले जा भैया को दे आ। उन्हें कमलगट्टे बहुत अच्छे लगते हैं। कुसल-छेम पूछती आना।

मैंने पोटली से कमलगट्टे निकाल लिए थे और मजे से चख रहा था। अम्माँ ने बहुत आँखें दिखायीं, मगर इतना सब्र कहां!

अम्माँ ने कहा- कह देना, सब कुशल है।

मैंने कहा- कह देना भैया ने बुलाया है। न जाओगे तो फिर तुमसे कभी न बोलेंगे, हाँ!

बाबूजी खाना खाकर निकल आए थे। तौलिए से हाथ-मुँह पोंछते हुए बोले- और यह भी कह देना कि साहब ने तुमको बहाल कर दिया है। जल्दी जाओ, नहीं तो दूसरा आदमी रख लिया जाएगा।

औरत ने अपना कपड़ा उठाया और चली गई। अम्माँ ने बहुत पुकारा पर वह न रुकी। शायद अम्माँ उसे सीधा देना चाहती थीं।

अम्माँ ने पूछा- सचमुच बहाल हो गया?

बाबूजी- और क्या झूठे ही बुला रहा हूँ। मैंने तो पाँचवें ही दिन उसकी बहाली कि रिपोर्ट की थी।

अम्माँ- यह तुमने बहुत अच्छा किया।

बाबूजी- उसकी बीमारी की यही दवा है।

प्रातःकाल मैं उठा तो देखा कि कजाकी लाठी टेकता हुआ चला आ रहा है। वह बहुत दुबला हो गया था। मालूम होता था, बूढ़ा हो गया है। हरा-भरा पेड़ सूखकर ठूँठ हो गया था। मैं उसकी ओर दौड़ा, और उसकी कमर से चिमट गया। कजाकी ने मेरे गाल चूमे, और मुझे उठाकर कंधे पर बैठाने की चेष्टा करने लगा। पर मैं न उठ सका। तब वह जानवरों की भाँति भूमि पर हाथों और घुटनों के बल खड़ा हो गया, और मैं उसकी पीठ पर सवार होकर डाकखाने की ओर चला। मैं उस वक्त फूला न समाता था, और शायद कजाकी मुझसे भी ज्यादा खुश था।

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