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प्रेमचन्द की कहानियाँ 6

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9767

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छटा भाग


सहसा दाई ने आकर कहा- बाई जी, रात की सब चीजें रखी हुई हैं, कहिए तो लाऊँ?

तारा ने कहा- नहीं, मेरे पास चीजें लाने की जरूरत नहीं; मगर ठहरो, क्या-क्या चीजें हैं।

‘एक ढेर का ढेर तो लगा है बाई जी, कहॉँ तक गिनाऊँ - अशर्फियॉँ हैं, ब्रूचेज, बाल के पिन, बटन, लाकेट, अँगूठियॉँ सभी तो हैं। एक छोटे-से डिब्बे में एक सुन्दर हार है। मैंने आज तक वैसा हार नहीं देखा। सब संदूक में रख दिया है।’

‘अच्छा, वह संदूक मेरे पास ला।’ दाई ने सन्दूक लाकर मेज रख दिया। उधर एक लड़के ने एक पत्र लाकर तारा को दिया। तारा ने पत्र को उत्सुक नेत्रों से देखा- कुंवर निर्मलकान्त, ओ.बी.ई.।

लड़के से पूछा- यह पत्र किसने दिया। वह तो नहीं, जो रेशमी साफा बॉँधे हुए थे?

लड़के ने केवल इतना कहा- मैनेजर साहब ने दिया है और लपका हुआ बाहर चला गया।

संदूक में सबसे पहले डिब्बा नजर आया। तारा ने उसे खोला तो सच्चे मोतियों का सुन्दर हार था। डिब्बे में एक तरफ एक कार्ड भी था। तारा ने लपक कर उसे निकाल लिया और पढ़ा- कुंवर निर्मलकान्त...। कार्ड उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ा। वह झपट कर कुरसी से उठी और बड़े वेग से कई कमरों और बरामदों को पार करती मैनेजर के सामने आकर खड़ी हो गयीं। मैनेजर ने खड़े होकर उसका स्वागत किया और बोला- मैं रात की सफलता पर आपको बधाई देता हूँ।

तारा ने खड़े-खड़े पूछा- कुँवर निर्मलकांत क्या बाहर हैं? लड़का पत्र दे कर भाग गया। मैं उससे कुछ पूछ न सकी।

‘कुँवर साहब का रुक्का तो रात ही तुम्हारे चले आने के बाद मिला था।’

‘तो आपने उसी वक्त मेरे पास क्यों न भेज दिया?’

मैनेजर ने दबी जबान से कहा- मैंने समझा, तुम आराम कर रही होगी, कष्ट देना उचित न समझा। और भाई, साफ बात यह है कि मैं डर रहा था, कहीं कुँवर साहब को तुमसे मिला कर तुम्हें खो न बैठूँ। अगर मैं औरत होता, तो उसी वक्त उनके पीछे हो लेता। ऐसा देवरुप पुरुष मैंने आज तक नहीं देखा। वही जो रेशमी साफा बॉँधे खड़े थे तुम्हारे सामने। तुमने भी तो देखा था।

तारा ने मानो अर्धनिद्रा की दशा में कहा- हॉँ, देखा तो था-क्या यह फिर आयेंगे?

हॉँ, आज पॉँच बजे शाम को। बड़े विद्वान आदमी हैं, और इस शहर के सबसे बड़े रईस।’

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