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प्रेमचन्द की कहानियाँ 7

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9768

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग


सुबह को विनोद ने माँ को चिंतित देखकर पूछा, ''अम्माँ, आज उदास क्यों हो?''

माँ विनोद को मुहब्बत से लवरेज़ आँखों से देखकर बोली, ''बेटा! तुमसे क्या कहूँ? रात को मैंने एक बहुत बुरा ख्वाब देखा हैं, जैसे तुम किसी अफ़सर को मारकर भाग गए हो और वेगुनाहों पर मार पड़ रही है।''

विनोद ने हँसकर कहा, ''क्या तुम चाहती थीं कि मैं पकड़ लिया जाता?''

माँ ने कहा, ''मैं तो चाहती हूँ कि तुम ऐसे कामों के नज़दीक ही न जाओ! पकड़े जाने का सवाल ही क्यों उठे! हमारा धरम है कि खुद जिएँ और दूसरों को भी जीने दें। दूसरों को मारकर खुद जीना मेरे धरम के खिलाफ है।''

विनोद, ''धरम और नीति का ज़माना नहीं है।''

माँ, ''धरम और नीति को हमेशा फ़तह हासिल हुई है और आइंदा भी होगी। स्वराज्य कत्ल, खून से नहीं मिलता; त्याग, तप और आत्मशुद्धि से मिलता है। लालच छोड़ते नहीं, बुरी इच्छाएँ छोड़ते नहीं, अपनी बुराइयाँ देखते नहीं, इस पर दावा है स्वराज्य लेने का। यह समझ लो, जो स्वराज्य कत्ल व खून से मिलेगा, वह क़त्ल व खून पर ही कायम रहेगा। अवाम की कोशिश से जो स्वराज्य मिलेगा, वह मुल्क की चीज़ होगी, जनता की चीज़ होगी और थोड़े से आदमियों का एक गिरोह तलवार के जोर से इंतजाम न करेगा। हम अवाम का स्वराज्य चाहते हैं, क़त्ल व खून की ताक़त रखनेवाले गिरोह का नहीं।''

विनोद ने कहा, ''तुम तो स्टेज पर खड़ी होकर बोलतीं। यहाँ कौन सुनने वाला है?''

माँ ने कहा, ''वेटा! तुम हँसते हो और मेरा जी दुःखी है। कई दिन से दाई आँख बराबर फड़क रही है। यक़ीनन कोई मुसीबत आने वाली है।''

विनोद ने कहा, ''मैं मुसीबत से नहीं डरता। अभी कौन-सा सुख भोग रहे हैं, जो मुसीवतों से डरें?''

यह कहता हुआ विनोद बाहर चला गया।

आज सुबह ही से विनोद का पता न था। मालूम नहीं कहाँ गया! रामेश्वरी ने पहले तो समझा कि काँग्रेस के दफ्तर में होगा, लेकिन जब एक बज गया और वह लौटकर न आया तो उसे फिकर हुई। दस बजे के बाद वह कहीं न रुकता था। फिर सोचा-शायद किसी काम से चला गया हो। रात का ख्वाव उसे बेचैन व परेशान करने लगा और वक्त के साथ-साथ बेचैनी भी वढ़ने लगी। जब शाम हो गई तो उससे न रहा गया। काँग्रेस के दफ्तर गई।

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