लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 7

प्रेमचन्द की कहानियाँ 7

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9768

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

69 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग


राजा साहब एकाएक चुप हो गये। फिर कदे आदम शीशे की तरफ देखकर शान्त भाव से बोले- मैं इतना कुरूप तो नहीं हूं कि कोई रमणी मुझसे इतनी घ़ृषा करे। राजा साहब बहुत ही रूपवान आदमी थे। ऊंचा कद था, भरा हुआ बदन, सेव का-सा रंग, चेरे से तेज झलकता था।

मैंने निर्भीक होकर कहा- इस विषय में तो प्रकृति ने हुजूर के साथ बड़ी उदारता के साथ काम लिया है। राजा साहब के चेहरे पर एक क्षीण उदास मुस्कराहट दौड़ गई, मगर फिर वहीं नैराश्य छा गया। बोले, सरदार साहब, मैंने इस बाजार की खूब सैर की है। सम्मोहन और वशीकरण के जितने लटके हैं, उन सबों से परिचित हूं, मगर जिन मंत्रों से मैंने अब तक हमेशा विजय पाई है, वे सब इस अवसर पर निरर्थक सिद्ध हुए। अन्त को मैंने यही निश्चय किया कि कुंआ ही अंधा है, इसमें प्यास को शांत करने की सामर्थ्य नहीं। मगर शोक, कल मुझ पर इस निष्ठुरता और उपेक्षा का रहस्य खुल गया। आह! काश, यह रहस्य कुछ दिन और मुझसे छिपा रहता, कुछ दिन और मैं इसी भ्रम, इसी अज्ञान अवस्था में पड़ा रहता।

राजा साहब का उदास चेहरा एकाएक कठोर हो गया, उन शीतर नेत्रों में जवाला-सी चमक उठी, बोले- “देखिए, ये वह पत्र हैं, जो कल गुप्त रूप से मेरे हाथ लगे हैं। मैं इस वक्त इस बात की जांच-पंडताल करना व्यर्थ समझता हूं कि ये पत्र मेरे पास किसने भेजे? उसे ये कहाँ मिले? अवश्य ही ये सरफराज की अहित कामना के इरादे से भेजे गए होंगे। मुझे तो केवल यह निश्चय करना है कि ये पत्र असली हैं या नकली, मुझे तो उनके असली होने में अणुमात्र भी सन्देह नहीं है। मैंने सरफराज की लिखावट देखी है, उसकी बातचीत के अन्दाज से अनभिज्ञ नहीं हूं। उसकी जवान पर जो वाक्य चढे हुए हैं, उन्हें खूब जानता हूँ। इन पत्रों में वही लिखावट है, कितनी भीषण परिस्थिति है। इधर मैं तो एक मधुर मुस्कान, एक मीठी अदा के लिए तरसता हूं, उधर प्रेमियों के नाम प्रेमपत्र लिखे जाते हैं, वियोग-वेदना का वर्णन किया जाता है। मैंने इन पत्रों को पढ़ा है, पत्थर-सा दिल करके पढ़ा है, खून का घूंट पी-पीकर पढ़ा है, और अपनी बोटियों को नोच-नोचकर पढ़ा है! आँखों से रक्त की बूंदें निकल-निकल आई हैं। यह दगा! यह त्रिया-चरित्र!! मेरे महल में रहकर, मेरी कामनाओं को पैरों से कुचलकर, मेरी आशाओं को ठुकराकर ये क्रीडाएं होती हैं! मेरे लिए खारे पानी की एक बूंद भी नहीं, दूसरे पर सुधा-जल की वर्षा हो रही है! मेरे लिए एक चुटकी-भर आटा नहीं, दूसरे के लिए षटरस पदार्थ परसे जा रहे है। तुम अनुमान नहीं कर सकते कि इन पत्रों की पढ़कर मेरी क्या दशा हुई।”

‘पहला उद्वेग जो मेरे हॄदय में उठा, वह यह था कि इसी वक्त तलवार लेकर जाऊं और उस बेदर्द के सामने यह कटार अपनी छाती में भोंक लूं। उसी के आँखों के सामने एडियां रगड़-रगड़ मर जाऊं। शायद मेरे बाद मेरे प्रेम की कद्र करे, शायद मेरे खून के गर्म छींटे उसके वज्र-कठोर हृदय को द्रवित कर दें, लेकिन अन्तस्तल के न मालूम किस प्रदेश से आवाज आई-यह सरासर नादानी है तुम मर जाओगे और यह छलनी तुम्हारे प्रेमोपहारों से दामन भरे, दिल में तुम्हारी मूर्खता पर हंसती हुई, दूसरे ही दिन अपने प्रियतम के पस चली जाएगी। दोनों तुम्हारी दौलत के मजे उड़ाएंगे और तुम्हारी बंचित-दलित आत्मा को तड़पाएंगे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book