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प्रेमचन्द की कहानियाँ 7

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9768

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग


दस बजे का वक्त था। वह काँग्रेस के दफ्तर की तरफ़ चली। इसी वक्त रोजाना एक बार विनोद का पता लेने के लिए यहीं आया करती थी।

सहसा उसने नौ-दस जवानों को हथकड़ियाँ पहने एक दर्जन सशस्त्र पुलिस के सिपाहियों के पंजे में गिरफ्तार देखा। पीछे थोड़ी दूर पर कुछ मर्द-औरत सर झुकाए शोक व निराशा की तसवीर बने आहिस्ता-आहिस्ता चले जा रहे थे।

रामेश्वरी ने दौड़कर एक सिपाही से पूछा, ''क्या ये काँग्रेस के आदमी हैं?''

सिपाही ने कहा, ''काँग्रेसवालों के सिवा अँगरेजों को कौन मारेगा?''

''कौन मारा गया?''

''एक पुलिस के सार्जेण्ट को इन सबने कत्ल कर दिया। आज आठवाँ दिन है।''  ''काँग्रेस के आदमी हत्या नहीं करते।''

''क़सूर साबित न होगा तो आप छूट जाएँगे।''

रामेश्त्ररी दम-भर वहीं खड़ी रही। फिर उन्हीं लोगों के पीछे-पीछे कचहरी की तरफ़ चली। फ़र्ज़ यह नई ताक़त पाकर सँभल गया। नहीं, वह इतने बेकसूर नौजवानों को मौत के मुँह में न जाने देगी। अपने खूनी बेटे की हिफ़ाज़त के लिए इतने बेगुनाहों का खून न होने देगी।

कचहरी में बहुत बड़ा मजमा था। रामेश्वरी ने एक अर्दली से पूछा, ''क्या साहब आ गए?''

उसने जवाव दिया, ''अभी नहीं आए। आते ही होंगे।''

''बहुत देर से आते हैं, बारह तो बजे होंगे?''

अर्दली ने झुँझलाकर कहा, ''तो क्या वह तुम्हारे नौकर हैं कि जब तुम्हारी मर्जी हो, आकर बैठ जाएँ। बादशाह हैं, जव मर्जी होगी आएँगे।''

रामेश्वरी चुप हो गई।

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