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प्रेमचन्द की कहानियाँ 8

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9769

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग


पंडित- तुमने हार उतार क्यों न दिया था?

माया- मैं क्या जानती थी कि आज ही यह मुसीबत सिर पड़नेवाली है, हाय भगवान् !

पंडित- अब हाय-हाय करने से क्या होगा? अपने कर्मों को रोओ। इसीलिए कहा करता था कि सब घड़ी बराबर नहीं जाती, न जाने कब क्या हो जाए। अब आयी समझ में मेरी बात, देखो, और कुछ तो न ले गया?

पड़ोसी लालटेन लिए आ पहुंचे। घर में कोना-कोना देखा। करियाँ देखीं, छत पर चढ़कर देखा, अगवाड़े-पिछवाड़े देखा, शौच गृह में झाँका, कहीं चोर का पता न था।

एक पड़ोसी- किसी जानकार आदमी का काम है।

दूसरा पड़ोसी- बिना घर के भेदिये के कभी चोरी होती ही नहीं। और कुछ तो नहीं ले गया?
माया- और तो कुछ नहीं गया। बरतन सब पड़े हुए हैं। सन्दूक भी बन्द पड़े है। निगोड़े को ले ही जाना था तो मेरी चीज़ें ले जाता। परायी चीज़ ठहरी। भगवान् उन्हें कौन मुँह दिखाऊँगी।
पंडित- अब गहने का मजा मिल गया न?

माया- हाय, भगवान्, यह अपजस बदा था।

पंडित- कितना समझा के हार गया, तुम न मानीं, न मानीं। बात की बात में 600 रू० निकल गए, अब देखूँ भगवान कैसे लाज रखते हैं।

माया- अभागे मेरे घर का एक-एक तिनका चुन ले जाते तो मुझे इतना दु:ख न होता। अभी बेचारी ने नया ही बनवाया था।

पंडित- खूब मालूम है, 20 तोले का था?

माया- 20 ही तोले का तो कहती थी?

पंडित- बधिया बैठ गई, और क्या?

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