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प्रेमचन्द की कहानियाँ 8

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9769

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग


माधवी- ऊँह! फूल चुनती थी, कॉँटे लग गये होंगे।

चन्द्रा- अभी नयी साड़ी आयी है। आज ही फाड़ के रख दी।

माधवी- तुम्हारी बला से!

माधवी ने कह तो दिया, किन्तु आँखें अश्रुपूर्ण हो गयीं। चन्द्रा साधारणत: बहुत भली स्त्री थी। किन्तु जब से बाबू राधाचरण ने जाति-सेवा के लिए नौकरी से इस्तीफा दे दिया था वह बालाजी के नाम से चिढ़ती थी। विरजन से तो कुछ न कह सकती थी, परन्तु माधवी को छेड़ती रहती थी। विरजन ने चन्द्रा की ओर घूरकर माधवी से कहा- जाओ, सन्दूक से दूसरी साड़ी निकाल लो। इसे रख आओ। राम-राम, मार हाथ छलनी कर डाले!

माधवी- देर हो जायेगी, मैं इसी भॉँति चलूँगी।

विरजन- नही, अभी घण्टा भर से अधिक अवकाश है।

यह कहकर विरजन ने प्यार से माधवी के हाथ धोये। उसके बाल गूंथे, एक सुन्दर साड़ी पहिनायी, चादर ओढ़ायी और उसे हृदय से लगाकर सजल नेत्रों से देखते हुए कहा- बहिन! देखो, धीरज हाथ से न जाय।

माधवी मुस्कराकर बोली- तुम मेरे ही संग रहना, मुझे संभालती रहना। मुझे अपने हृदय पर भरोसा नहीं है।

विरजन ताड़ गई कि आज प्रेम ने उन्मत्तता का पद ग्रहण किया है और कदाचित् यही उसकी पराकाष्ठा है। हॉँ ! यह बावली बालू की भीत उठा रही है।

माधवी थोड़ी देर के बाद विरजन, सेवती, चन्द्रा आदि कई स्त्रियों के संग सुवामा के घर चली। वे वहॉँ की तैयारियॉँ देखकर चकित हो गयीं। द्वार पर एक बहुत बड़ा चँदोवा बिछावन, शीशे और भॉँति-भाँति की सामग्रियों से सुसज्जित खड़ा था। बधाई बज रही थी! बड़े-बड़े टोकरों में मिठाइयाँ और मेवे रखे हुए थे। नगर के प्रतिष्ठित सभ्य उत्तमोत्तम वस्त्र पहिने हुए स्वागत करने को खड़े थे। एक भी फिटन या गाड़ी नहीं दिखायी देती थी, क्योंकि बालाजी सर्वदा पैदल चला करते थे। बहुत से लोग गले में झोलियाँ डाले हुए दिखाई देते थे, जिनमें बालाजी पर समर्पण करने के लिये रुपये-पैसे भरे हुए थे। राजा धर्मसिंह के पाँचों लड़के रंगीन वस्त्र पहिने, केसरिया पगड़ी बांधे, रेशमी झण्डियां कमर से खोंसे बिगुल बजा रहे थे। ज्योंही लोगों की दृष्टि विरजन पर पड़ी, सहस्रों मस्तक शिष्टाचार के लिए झुक गये। जब ये देवियां भीतर गयीं तो वहां भी आंगन और दालान नवागत वधू की भांति सुसज्जित दिखे! सैकड़ो स्त्रियां मंगल गाने के लिए बैठी थीं। पुष्पों की राशियाँ ठौर-ठौर पड़ी थी। सुवामा एक श्वेत साड़ी पहिने सन्तोष और शान्ति की मूर्ति बनी हुई द्वार पर खड़ी थी। विरजन और माधवी को देखते ही सजल नयन हो गयी। विरजन बोली- चची! आज इस घर के भाग्य जग गये। सुवामा ने रोकर कहा- तुम्हारे कारण मुझे आज यह दिन देखने का सौभाग्य हुआ। ईश्वर तुम्हें इसका फल दे।

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