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प्रेमचन्द की कहानियाँ 9

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9770

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का नौवाँ भाग


मुसाफिर ने निराशा के भव से उत्तर दिया- तेरी तक़दीर में नहीं, वर्ना मेरा क्या बना-बनाया घोंसला उजड़ जाता? दौलत मेरे पास नहीं। रूप-रंग मेरे पास नहीं, फिर वफ़ा की देवी मुझ पर क्यों मेहरबान होने लगी ? पहले समझता था वफ़ा दिल के बदले मिलती है, अब मालूम हुआ और चीजों की तरह वह भी सोने-चाँदी से खरीदी जा सकती है।

मुन्नी को मालूम हुआ, मेरी नज़रों ने धोखा खाया था। मुसाफिर बहुत काला नहीं, सिर्फ सॉँवला। उसका नाक-नक्शा भी उसे आकर्षक जान पड़ा। बोली- नहीं, यह बात नहीं, तुम्हारा पहला खयाल ठीक था।

यह कहकर मुन्नी चली गयी। उसके हृदय के भाव उसके संयम से बाहर हो रहे थे। मुसाफ़िर किसी खयाल में डूब गया। वह इस सुन्दरी की बातों पर गौर कर रहा था, क्या सचमुच यहां वफ़ा मिलेगी? क्या यहाँ भी तक़दीर धोखा न देगी? मुसाफ़िर ने रात उसी गाँव में काटी। वह दूसरे दिन भी न गया। तीसरे दिन उसने एक फूस का झोंपड़ा खड़ा किया।

मुन्नी ने पूछा- यह झोपड़ा किसके लिए बनाते हो?

मुसाफ़िर ने कहा- जिससे वफ़ा की उम्मीद है।

‘चले तो न जाओगे?’

‘झोंपड़ा तो रहेगा।’

‘खाली घर में भूत रहते हैं।’

‘अपने प्यारे का भूत ही प्यारा होता है।’

दूसरे दिन मुन्नी उस झोंपड़े में रहने लगी। लोगों को देखकर ताज्जुब होता था। मुन्नी उस झोंपड़े में नहीं रह सकती। वह उस भोले मुसाफिर को जरूर द़गा देगी, यह आम खयाल था, लेकिन मुन्नी फूली न समाती थी। वह न कभी इतनी सुन्दर दिखायी पड़ी थी, न इतनी खुश। उसे एक ऐसा आदमी मिल गया था, जिसके पहलू में दिल था।

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