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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


सड़क के किनारे आमने-सामने दो दरख्त खड़े थे। उनमें आम के दरख्त भी थे। इस उत्कंठा में उसे आमों पर निशाने मारने का एक दिलचस्प काम हाथ आया, मगर आँखें जतीन के लिए रास्ते पर थीं। यह बात क्या है, आज वह आ क्यूँ नहीं रहा है?

धीरे-धीरे साया लंबा हो गया। धूप किसी थके हुए मुसाफ़िर की तरह पाँव फैलाकर सोती हुई मालूम हुई। अब तक जतीन के आने की उम्मीद रही। उम्मीद में वक्त उड़ता चला जाता था। मायूसी से वह घुटने तोड़कर बैठ गया।

फुंदन की आँखों से बेअख्तियार भग्न आशा के आँसू बहने लगे। हिचकियाँ बँध गईं। जतीन कितना बेरहम है! रोज़ आप ही दौड़ा आता था। आज जब मैं दौड़ा आया तो घर बैठ रहा। कल आएगा तो गाँव में घुसने न दूँगा। उसकी बालोचित आरजूएँ अपनी सारी ताकत के साथ उसके दिल को मथने लगीं।

सहसा उसे जमीन पर एक टूटा हुआ झब्बा नज़र आया। इस निराशा और असफलता के आलम में बचपन की नैसर्गिक निश्चिंतता ने दुःख दूर करने का सामान पैदा कर दिया। कुछ पत्तियाँ चुनकर झब्बे में बिछाई। उसमें कुछ बजरियाँ और कंकड़ चुनकर रखे। अपना कुर्ता उतारकर उसको ढाँका और उसे सिर पर रखकर गाँव की तरफ़ चला। अब वह जतीन को ढूँढने वाला लड़का न था, खुद जतीन था। वही अच्छी-अच्छी खाने की चीज़ों से भरा थाल सिर पर रखे उसी तरह अर्थहीन आवाज़ लगाता हुआ, रफ्तार भी वही, बात करने का ढंग भी वही। जतीन के आगे-आगे चलकर क्या उसे वह खुशी हो सकती शी जो इस वक्त जतीन बनकर हो रही थी? वह हवा में उड़ा जा रहा था- मृग-तृष्णा में हक़ीक़त का मज़ा लेता हुआ, नकल में असल की सूरत देखता हुआ। खुशी कारण से किस क़दर आज़ाद है। इसकी चाल कितनी मस्ताना थी? गुरूर से उसका सिर कितना उठा हुआ था?

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