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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


उसका जी चाहता था कि इसी वक्त धीरेन के पास चलूँ। चलकर मजिस्ट्रेट से कहूँ कि मुझे उनसे मुलाकात करने दो। क्या वह इंकार करेगा? हाय! धीरेन इस वक्त क्या करते होंगे? काश, मैं उनके पहलू में होती! क्या वह मुझसे भी अपने दिल का हाल छिपाएँगे? क्या इस वक्त मेरा ख्याल होगा? कभी-कभी उसका दिल झुँझला उठता और वह अपने शौहर को वेरहम ख्याल करती। क्या उन्हें खवर नहीं कि मैं किस कदर बेचैन हूँ! इतने दिनों तक साथ रहने पर भी उन्हें मेरे दिल का और मेरी मुहब्बत का अंदाज़ा नहीं हुआ। वह क्यों खामोश हैं? क्यों?

टहलते-टहलते उसकी निगाह धीरेन्द्र की मेज पर पड़ी। खुतूत, काग़ज़ात, अखबारात और पृष्ठ परेशान की तरह पड़े हुए थे। सरला व्याकुल तौर पर बैठ गई और उन्हें समेटने लगी। यकायक उसकी निगाह कागज के टुकड़े पर पड़ी जो मेज के नीचे गिरा हुआ था। उसने चाहा कि उसे उठाकर दूसरे खुतूत के साथ रख दे, मगर उसमें चंद ऐसे अल्फाज नज़र आए जो खुद-ब-खुद उसकी आखों में चुभ गए। वे अल्फाज थे जिनके पर्दे में उसकी परेशानियों का रहस्य छिपा हुआ था। 'मंगल के दिन चार बजे' - सरला चौंक पडी। उसने पुर्जे को उठा लिया। मंगल के दिन चार बजे ही का तो यह वाक़या है। उसने इन अल्फाज को फिर गौर से देखा। क्या इस पुर्जे का इस वाक़ियात से कोई संबंध है? क्यों, मैं न उसे पढ़ूँ?

यह मुख्तसिर-सा खत था। लिखने के ढंग से वह परिचित मालूम होती थी, मगर खत को पढ़, सरला बावजूद कि शौहर को दिलोजान से चाहती थी, लेकिन अंग्रेजी तालीम के असर ने उसके दिल में यह खयाल कायम कर दिया था कि मुझे अपने शौहर के पोशीदा खुतूत पढ़ने में कोई अधिकार नहीं है। क्या मैं इस खत को पढ़ लूँ तो वह मुझसे नाराज़ होंगे? यकीनन इससे इस मामलात पर कुछ-न-कुछ रोशनी पड़ेगी। इसमें कोई ऐसी बात हरगिज़ नहीं हो सकती जो धीरेन मुझसे छिपाना चाहते हों। यह मानकर इसमें कोई गुप्त बात ही हो, ताहम मैं इस वक्त इसे पढ़ने की अधिकारी हूँ। आधुनिक सभ्यता की यह कैद ऐसे नाजुक मौक़ों पर अमल में नहीं आ सकती। क्या मुझे उनके राज़दार बनने का कोई अधिकार नहीं है? मैं साबित कर दूँगी कि मेरे दिल में भी बातें उसी तरह सुरक्षित रह सकती हैं, जिस तरह उनके दिल में।

उसने खत खोलकर देखा। यह एक संक्षिप्त सा खत था। सरला एक निगाह में उसे पढ़ गई और उसे ऐसा मालूम हुआ, गोया मेरे बदन में जान नहीं है। वह पत्थर के बुत की तरह स्थिर हो गई। उसकी उँगलियों के बीच में कागज का वह पुर्जा हवा के झोंकों से हिल रहा था और उसकी आँखें दीवार की तरफ़ गड़ी हुई थीं। उसका चेहरा खाक की तरह जर्द हो गया था। प्राणहीन, बेजान की तरह उसके दिल-दिमाग इस वक्त बेकार हो गए थे। खत का मजमून भी ख्याल नहीं आता था। वह बहुत देर तक इसी तरह खामोश खड़ी रही। यकायक उसकी निगाहों के सामने से एक पर्दा-सा हट गया और सारी क़ैफ़ियत नज़रों के सामने स्पष्ट हो गई। उसने एक ठंडी साँस ली और कुर्सी पर गिर पड़ी।

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