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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


उस औरत ने लपककर खत उठा लिया और उस पर उड़ती निगाह डालकर निडर लहजे में बोली- ''मुझे किसी का खौफ नहीं है। बेशक धीरेन को मुझसे मुहब्बत है। आज से नहीं, बहुत दिनों से।''

थोड़ी देर तक दोनों खामोश रहीं। तब सरला ने अधिकारपूर्ण अंदाज़ से कहा- ''तो उन्हें बचा क्यों नहीं लेतीं! इस खत को मजिस्ट्रेट के पास भेज दो और धीरेन फ़ौरन छूट जाएँगे।'' यह कहकर वह लौट पड़ी और अपने निवास में चली आई।

सबेरा हो गया था और सरला की आँखें अभी नहीं झपकी थीं। उसे अब धीरेन की रिहाई की फ़िक्र न थी। उस फ़िक्र से अब वह आज़ाद हो गई थी, मगर जिन फ़िक्रों ने इस वक्त उसे घेरा था, वह उससे भी ज्यादा प्राणघातक थीं- ''थोड़ी देर में यहाँ आते होंगे। मुझसे मुलाक़ात होगी। क्या मैं उनसे मिल सकूँगी? अब मैं किस दावे पर, किस बिना पर उनसे मिलूँगी? जब यह मैं जानती हूँ कि उन्हें मुझसे न कभी मुहब्बत थी और न है, तो मैं कौन-सा मुँह लेकर उनके सामने जाऊँगी? जब तक मैं मुहब्बत का ख्वाब देख रही थी, मुझे उन पर एतबार था। मगर अब आह! अब मेरे लिए ज़िंदगी में क्या उम्मीद है? मेरा दिल, मेरी जान, मेरी आरजुएँ, मेरी ज़िंदगी की खुशियाँ सब उनकी जात से जुड़ी हुई थीं। मुहब्बत से औरत का सुहाग क़ायम है, मेरा सुहाग अब कहाँ है?''

सरला की आँखें खिड़की के बाहर हरे-भरे मैदान की ओर लगी हुई थीं, गोया वह भविष्य के विस्तृत मैदान में क़दम बढ़ाती चली जाती है। उसके दिमाग में अब अहसास का माद्दा न रहा था। भूख और प्यास, नींद और थकान ये ज़रूरतें उसे बिलकुल महसूस न होती थीं। सुस्त रफ्तार दिन चढ़ता जाता था और सरला वहीं खिड़की के सामने उन्हीं ख्यालों में डूबी हुई थी। धीरेन की अब तक कुछ खबर न थी। मगर सरला को उसकी ज्यादा चिंता न थी। वह अपने शौहर को हमेशा सहनशील और दृढ़ शख्स समझती रही। उसने बारहा उनसे निर्मोहित और उदासीनता की शिकायत की थी, मगर इस ख्याल से उसके दिल को तस्कीन हो गई थी कि उनकी तबीयत ऐसी सिद्ध हुई। वह समझती थी कि वह स्वभावत: भावाभिव्यक्ति से एतराज़ करते रहते हैं। वह उसकी ओर से हमेशा बेखबर से रहते थे। कुछ परवा नहीं थी कि वह कहाँ जाती है, कैसे रहती है, किन चीज़ों का शौक है। ऐसा कभी ही कभी इत्तफ़ाक हुआ था कि वह दुर्गा-पूजा के दिन सरला के लिए कोई तोहफ़ा लाए हैं। सरला समझती थी कि मुक़द्दमात की व्यस्तता इन उदासीनताओं का कारण हैं। उसे यकीन था कि गो जाहिर न सही, मगर दिल में वह मेरी मुहब्बत करते हैं, मगर अब इन निर्दयताओं का राज समझ में आ गया। वह अब दूसरी औरत के प्रेमपाश में गिरफ्तार हैं। जब मुहब्बत का रिश्ता न रहा तो शिष्टाचार व सभ्यता का संबंध किस काम का। मगर बावजूद इन उदासीनताओं के वह शौहर की मुहब्बत में मतवाली थी। उसने उन्हें अपने दिल में जगह दे दी थी और अब किसी तरह हटा नहीं सकती थी, भले ही वह मुहब्बत उसके लिए आत्मा को काटने वाली ही क्यों न हो। बेशक यह ख्यालात ईर्ष्या और जलन के सबब से पैदा हुए थे, मगर ईर्ष्या की तेजी और हृदय-द्रावकता मुहब्बत की कसौटी है।

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