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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


मुझे इसी हालत में छोड़कर तीनों सूरतें कमरे में चली गईं। मैंने समझा, मेरी सजा खत्म हुई, लेकिन क्या ये सब मुझे यूँ ही बँधा रखेंगे? कनीज़ें मुझे इस स्थिति में देख लें तो क्या कहें। नहीं, अब मैं इस घर में रहने के क़ाबिल ही नहीं। मैं सोच रही थी कि रस्सियाँ क्योंकर खोलूँ मगर अफ़सोस! मुझे न मालूम था कि अभी तक मेरी जो गत हुई है, वह आने वाली बेरहमियों का सिर्फ़ बयाना है। मैं अब तक न जानती थी कि कमीना कितना क्रूर, कितना क़ातिल होता है। मैं अपने दिल से बहस कर रही थी कि अपनी अपमान का इलज़ाम मुझ पर कहाँ तक है। अगर मैं हसीना की इन जिगर को छीलने वाली बातों का जवाब न देती तो क्या यह नौबत आती। आती और जरूर आती। वह काली नागिन मुझे डँसने का इरादा करके चली थी। इसीलिए उसने मालिकाना लहजे में गुफ्तगू शुरू की कि मैं गुस्से में आकर उसकी धिक्कार करूँ और उसे मुझे जलील करने का बहाना मिल जाए।

पानी जोर से बरसने लगा था। बौछारों से मेरा सारा जिस्म तर हो गया था। सामने गहरा अँधेरा था। मैं कान लगाए सुन रही थी कि अंदर क्या मिस-कोट हो रही है, मगर मेह की सनसनाहट के कारण आवाज़ें साफ़ न सुनाई देती थीं। इतने में लालटेन फिर कमरे से बरामदे में आई और तीनों भयावनी सूरतें फिर सामने आकर खड़ी हो गईं। अब की उस खूनपरी के आँखों में एक रक्तपाती उन्माद प्रकट था। मेरी तरफ़ शरारत-भरी नज़रों से देखकर बोली- ''बेगम साहिबा, मैं तुम्हारी बदज़बानियों को ऐसा सबक देना चाहती हूँ जो तुम्हें सारी उम्र याद रहे और मेरे धर्म-गुरु ने बतलाया है कि कमची से ज्यादा स्थायी और कोई सबक़ नहीं होता।'' यह कहकर उस अन्यायी ने मेरी पीठ में एक कमची जोर से मारी।

मैं तिलमिला गई। मालूम हुआ कि किसी ने पीठ पर आग की चिनगारी रख दी। मुझसे जब्त न हो सका। वालदेन ने कभी फूल की छड़ी से भी न मारा था। जोर से चीखें मार-मारकर रोने लगी। खुद्दारी का गरूर, ग़ैरत का अहसास सब गायब हो गया। कमची की खौफ़नाक और रोशन-हक़ीकत के सामने सब जज्बात फना हो गए। उन हिंदू देवियों के जिगर शायद लोहे के रहे होंगे जो अपनी आन पर आग में कूद पड़ती थीं। मेरे दिल पर तो उस वक्त यही ख्याल था कि इस मुसीबत से क्यूँकर छुटकारा हो। सईद खामोश तस्वीर बना खड़ा था। मैं उसकी तरफ़ प्रार्थना भरी आँखों से देखकर निहायत विनती से बोली- ''सईद लिल्लाह, मुझे इस जालिम से बचाओ। मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ। तुम मुझे जहर दे दो, खंजर से गर्दन काट लो, लेकिन ये यातना सहने की मुझमें ताब नहीं। उन दिलजूइयों को याद करो, मेरी मुहब्बत को याद करो, उसी के सदके। इस वक्त मुझे इस मुसीबत से बचाओ। खुदा तुम्हें इसका फल देगा।''

सईद इन बातों से कुछ पिघला। हसीना की तरफ़ भयभीत निगाहों से देखकर बोला- ''ज़रीना, मेरे कहने से अब जाने दो। मेरी खातिर से इन पर रहम करो।''

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