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प्रेमचन्द की कहानियाँ 11

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9772

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग


सत्यप्रकाश- जी हाँ, आपकी बदनामी होगी।

देवप्रकाश- अच्छा, तो आप मेरी मान रक्षा करते हैं ! यह क्यों नहीं कहते कि पढ़ना अब मंजूर नहीं। मेरे पास इतना रुपया नहीं कि तुम्हें एक-एक क्लास में तीन-तीन साल पढ़ाऊँ, ऊपर से तुम्हारे खर्च के लिए भी प्रतिमाह कुछ दूँ। ज्ञानू तुमसे कितना छोटा है, लेकिन तुमसे एक ही दर्जा नीचे है। तुम इस साल जरूर ही फेल होओगे; वह जरूर ही पास होगा। अगले साल तुम्हारे साथ ही जावेगा। तब तो तुम्हारे मुँह में कालिख लगेगी न?

सत्यप्रकाश- विद्या मेरे भाग्य ही में नहीं है।

देवप्रकाश- तुम्हारे भाग्य में क्या है?

सत्यप्रकाश- भीख माँगना।

देवप्रकाश- तो फिर भीख ही माँगो। मेरे घर से निकल जाओ।

देवप्रिया भी आ गई। बोली- शरमाता तो नहीं, और बातों का जवाब देता है।

सत्यप्रकाश- जिनके भाग्य में भीख माँगना होता है, वे बचपन में ही अनाथ हो जाते हैं।
देवप्रिया- ये जली-कटी बातें अब मुझसे न सही जायँगी। मैं खून का घूँट पी-पीकर रह जाती हूँ।

देवप्रकाश- बेहया है ! कल से इसका नाम कटवा दूँगा। भीख माँगनी है, तो भीख ही माँगे।

दूसरे दिन सत्यपकाश ने घर से निकलने की तैयारी कर दी। उसकी उम्र अब 16 साल की हो गई थी। इतनी बातें सुनने के बाद उसे उस घर में रहना असह्य हो गया था। जब तक हाथ पाँव न थे, किशोरावस्था की असमर्थता थी, तब तक अवहेलना, निरादर, निठुरता, भर्त्सना सब कुछ सहकर घर में रहता रहा। अब हाथ पाँव हो गए थे, उस बंधन में क्यों रहता ! आत्माभिमान आशा की भाँति चिरजीवी होता है।

गर्मी के दिन थे। दोपहर का समय। घर के सब प्राणी सो रहे थे। सत्यप्रकाश ने अपनी धोती बगल में दबायी, एक छोटा-सा बैग हाथ में लिया, और चाहता था कि चुपके-से बैठक से निकल जाय कि ज्ञानू आ गया, और उसे जाने को तैयार देखकर बोला- कहाँ जाते हो, भैया !

सत्यप्रकाश- जाता हूँ, कहीं नौकरी करूँगा।

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